उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
यह भी आदत-सी बन गई थी-जब तब, किन्हीं दो स्थितियों के बीच, अपने से सवाल पूछ लेना। जाने कब और कितनी जगह अपने मुँह से यह शब्द सुना था। उसी दिन। उससे एक दिन पहले। हफ्ता भर पहले महीना भर पहले जैसे कि हर नई बार इस शब्द को सामने रख लेने से एक नई तरह से सोचने की शुरुआत हो सकती हो। पर होता इससे कुछ नहीं था-सिवा इसके कि सोच के उलझे हुए धागे में एक गाँठ और पड़ जाती थी। सात दस। अब ? सात पचीस। अब ? सात सैंतालीस। अब ? सात अट्ठावन। अब ? जैसे कि नींद लाने के लिए एक गिनती की जा रही हो। भेड़ों की गिनती की तरह। अब ? अब ? अब ?
खिड़कियों के बाहर सब कुछ अँधेरे में घुल गया था। हर काँच पर काले फौलाद का एक-एक शटर खिंच गया था। यूँ दिन में भी उस सोफे पर बैठने से सिवा पेड़ों की टहनियों और यहाँ-वहाँ उगे घास-पात के कुछ नज़र नहीं आता था। पर शाम को सात के बाद तो कुछ भी सामने नहीं रह जाता था-स्याह काँच और फटी जाली को छोड़कर। पहले एक काँच पर सड़क के लैम्प की रोशनी पड़ा करती थी। उससे वह लैम्प, उससे नीचे का खम्भा और सड़क का उतना-सा हिस्सा रात भर सजीव रहते थे। पर अब कई दिनों से वह लैम्प जलता ही नहीं था। पता नहीं बल्ब फ्यूज हो गया था या लाइन ही कट गई थी। इससे बाहर अँधेरा होने का मतलब होता था बिलकुल अँधेरा। जाकर काँच से आँख सटा लो, तो भी सिवा अँधेरे के कुछ नहीं।
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