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उपन्यास >> न आने वाला कल

न आने वाला कल

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4420
आईएसबीएन :9788170283096

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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...


‘अब ? मैंने आईने में अपना चेहरा देखा। पचीस वाट की रोशनी में वह काफी बेजान-सा लगा। कुछ-कुछ डरावना भी। जैसे कि उसके उभार अलग हों, गहराइयाँ अलग। मैंने आईने के पास से हटते हुए दोनों हाथों से चेहरे को मल लिया। ‘अब ?’
कुछ था जो किया जाना था। लेकिन क्या ?

मैंने कमरे में खड़े होकर आसपास के सामान को देखा। दो कबर्ड, दो पलंग। एक चेस्ट आफ् ड्राअर्ज। एक ड्रेसिंग टेबल। दो कुर्सियाँ। एक तिपाई। सब कुछ उस ज़माने का जिस ज़माने में वह कोठी बनी थी, या जिस ज़माने स्कूल बना था। तब से अब तक का सारी घिसाई के बावजूद अपनी ज़गह मज़बूत। बाहर बरामदे में एक पहियेदार सोफा और दो सोफा चेयर। तीनों के स्प्रिंग अलग-अलग तरफ को करवट लिए। बीस साल पहले के परदे; न जाने किस रंग के। उतने ही साल पहले की दरी। शराब, शोरबा, स्याही और बच्चों की हाजत कें निशान लिए। सब कुछ बीता हुआ, जिया जा चुका है, फिर भी जहाँ का तहाँ। मुझसे पहले जाने किस-किसका, पर आज मेरा। मेरा अर्थात् स्कूल के हिन्दी मास्टर का। तीन साल पहले तक हिन्दी मास्टर का नाम था नरुला। आज नाम था सक्सेना। मनोज सक्सेना अर्थात् शिवचन्द्र नरूला अर्थात् वह अर्थात् मैं अर्थात हम दोनों में से कोई नहीं अर्थात् हिन्दी-मास्टर फादर बर्टन स्कूल। मैं कमरे से बरामदे में आ गया और जिस सोफा चेयर के स्प्रिंग जरा कम चुभते थे, उस पर पसर गया। ‘अब ?’

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