उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
सामने के स्याह काँच को देखते हुए मैंने एक लम्बा कश खींचा शोभा पास में होती, तो उस तरह कश खींचने से मुझे रोकती तो नहीं, पर एक शहीदाना भाव आँखों में लाकर चुपचाप मुझे देखती रहती। उसकी आँखों के उस शहीदाना भाव को सहना ही मुझे सबसे मुश्किल लगता था। लगता कि वह मुझे देख नहीं रही, मन-ही-मन उस दूसरे के साथ मेरी तुलना कर रही है जिसके साथ विवाहित जीवन के सात साल उसने पहले बिताए थे। हालाँकि उस दूसरे का नाम वह जबान पर नहीं लाती थी-अपने सारे व्यवहार से यही प्रकट करने का प्रयत्न करती थी कि यह उसकी पहली शादी है-फिर भी अपने मन से वह जीती उस खोई हुई जिन्दगी में ही थी। इसीलिए उसकी आँखों में वह शहीदाना भाव दिन में कई-कई बार नज़र आ जाता था। सुबह उठने से रात को सोने तक वह बात-बात पर शहीद होती थी। मेरा हँसना, बात करना, खीझना कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसे शहीद होने के लिए मजबूर न करता हो, बातचीत के दौरान मेरे मुँह से कभी उसके पहले पति का नाम निकल जाता, तो उसे लगता जैसे जान-बूझकर उसे छीलने की कोशिश की गई हो।
और उसकी शहीद होते रहने की आदत के कारण मैं भी अपने को शहीद होने के लिए मजबूर पाता था। उसके जूड़े से बाहर निकली पिंनें, साड़ी से नीचे को झाँकता पेटीकोट, आँखों में लदा-लदा सुरमा और फड़कती नसें लिए बात के बीच से उठ जाने का ढंग-बहुत कुछ ऐसा था जिसके लिए मैं उसे टोकना चाहता था, पर टोक नहीं पाता था। कुछ दिनों के परिचय की झोंक में शादी तो मैंने उससे कर ली थी, पर अब लगता था कि अन्दर के एक डर से अपने को कमजोर पाकर ही मैंने ऐसा किया था। शादी से पहले एक बार मैंने उससे कहा भी था कि पैंतीस की उम्र तक अकेला रहकर मैं अपने को बहुत थका हुआ महसूस करने लगा हूँ। तब उसने बहुत समझदारी के साथ आँखें हिलाई थीं-जैसे कि यह कहकर मैंने अपनी तब तक की ज़िन्दगी के लिए पश्चाताप प्रकट किया हो। मुझे पहली बार मिलने पर ही लगा था’, उसने कहा था, ‘आदमी अपने मनबहलाव के लिए चाहे जितने उपाय कर ले, पर रात-दिन का अकेलापन उसे तोड़कर रख देता है।’ इस बात में उसका हल्का-सा संकेत अपने पिता से सुनी बातों की तरफ भी था। मैंने उस संकेत को नहीं उठाया था क्योंकि खामखाह की लम्बी व्याख्या में मैं नहीं पड़ना चाहता था।
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