उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
उसने मेरे घर में आकर एक नई शुरूआत की कोशिश की थी, पर वह शुरुआत सिर्फ उसके अपने लिए थी। उस शुरुआत में मुझे उसके लिए वही होना चाहिए था जो कि वह दूसरा था जिसकी वह सात साल आदी रही थी। घर कैसे होना चाहिए, खाना कैसा बनना चाहिए, दोस्ती कैसे लोगों से रखनी चाहिए-इस सबके उसके बने हुए मानदण्ड थे जिनसे अलग हटकर कुछ भी करना उसे बुनियादी तौर पर गलत जान पड़ता था। शुरू में जब मैं अपने ढंग से कुछ भी करने की जिद करता, तो वह आँखों में रुआंसा भाव लाकर पलकें झपकाती हुई सिर्फ एक ही शब्द कहती, ‘अरे !’ मैं उस ‘अरे !’ की चुभन महसूस करता हुआ एक उसांस भरकर चुप रह जाता, या मन में कुढ़ता हुआ कुछ देर के लिए घर से चला जाता। तब लौटकर आने पर वह रोए चेहरे से घर के काम करती मिलती। उसकी नज़र में मैं अब भी एक अकेला आदमी था जिसका घर उसे संभालना पड़ रहा था जबकि मेरे लिए वह किसी दूसरे की पत्नी थी जिसके घर में मैं एक बेतुके मेहमान की तरह टिका था। मैं कोशिश करता था कि जितना ज़्यादा से ज़्यादा वक्त घर से बाहर रह सकूँ, रहूँ। पर जब मजबूरन घर में रुकना पड़ जाता, तो वह काफी देर के लिए साथ के पोर्शन में शारदा के पास चली जाती थी।
बीच में एक बार उसे कॉलिक का दौरा पड़ा था। तब कर्नल बत्रा ने जो दवाइयाँ लिखकर दीं, वे उसने मुझे नहीं लाने दीं। कागज़ पर कुछ और दवाइयों के नाम लिख दिए तो कुछ साल पहले वैसा ही दौरा पड़ने पर उसे दी गई थीं। मैंने उससे कहा भी कि जिस डॉक्टर को दिखाया है, उसी की दवाई उसे लेनी चाहिए। पर वह अपने हठ पर अड़ी रही ‘‘मुझे अपने जिस्म का पता है,’’ उसने कहा। ‘‘मुझे आराम आएगा, तो उन्हीं दवाइयों से जो मैं पहले ले चुकी हूँ। जब मैं कहती हूँ कि मुझे वही दवाइयाँ चाहिए, तो तुम इन दवाइयों के लिए हठ क्यों करते हो ?’’
मैंने हठ नहीं किया। वह अपनी दवाइयों से तीन-चार दिन में ठीक भी हो गई। उसे सचमुच अपनी दवाइयों का पता था, खान-पान के परहेज़ का पता था। और भी प्रायः सभी चीज़ों का पता था-उन किताबों का जो उसे पढ़नी चाहिए थीं, उन जगहों का जहाँ उसे जाना चाहिए था और उसे सारे तौर-तरीके का जिससे एक घर में अच्छी ज़िन्दगी जी जा सकती थी। अगर कुछ सीखने को था, तो सिर्फ मेरे लिए था क्योंकि इतने साल अकेली ज़िन्दगी जीने के कारण मुझे किसी भी सही चीज़ का बिलकुल पता नहीं था’ साथ रहने के कुछ महीनों में हमें एक-दूसरे की इतनी आदत तो हो ही गई थी कि हमने एक-दूसरे के मामले में दखल देना छोड़ दिया था। मुझे मन में जितना गुस्सा आता था, बाहर मैं उतने ही कोमल ढंग से बात करता था। वह भी ऐसा ही करती थी। एक-दूसरे की बढ़ती पहचान हमारे अन्दर एक औपचारिकता में ढलती गई थी। यह जान लेने के बाद कि न तो हम अपनी-अपनी हदें तोड़ सकते हैं और न ही एक-दूसरे ही हदबन्दी को पार कर सकते हैं, हमने एक युद्ध विराम में जाना शुरू कर दिया था। उस युद्ध विराम की दोनों की अपनी-अपनी शर्तें थीं-अपने-अपने तक सीमित। दोनों को एक-दूसरे से कुछ आशा नहीं थी, इसलिए हदबन्दी टूटने की नौबत बहुत कम आती थी।
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