देखते हैं कि आज सभ्य कहे जाने वाले वर्ग में अध्यात्म के प्रति उपेक्षा ही नहीं, तिरस्कार भी है। जो व्यक्ति अध्यात्म की, लोक-परलोक की, ईश्वर-आत्मा की, भजन-पूजन की बात करता है, वह मूर्ख समझा जाता है। उसका मखौल बनाया जाता है। इस खेदजनक स्थिति का एकमात्र कारण यही है कि अध्यात्म का शुद्ध स्वरूप आज हमारी आँखों के आगे नहीं है। जिस तत्त्वज्ञान का अवलंबन करके प्राचीन काल में इस देश का प्रत्येक व्यक्ति नररत्न, महामानव, पुरुषार्थी, पराक्रमी, सद्गुणी, मनस्वी, दीर्घजीवी, निरोग, संपन्न, सुखी-समृद्ध एवं सभी दिशाओं में सफल होता था। राजा अपने राजकुमारों को, श्रीमंत अपने लाड़लों को, ऋषियों के आश्रमों में जिस अध्यात्म की शिक्षा प्राप्त करने भेजते थे और जिसे सीखकर वे पृथ्वी के देवता बनकर लौटते थे, वह अध्यात्म आज कहाँ है? यदि अपनी वह प्राचीन काल वाली उपयोगिता आध्यात्मिकता ने आज भी उपस्थित की होती तो निश्चय ही उसका गौरव और सम्मान अक्षुण्ण रहा होता। जिस प्रकार भौतिक विज्ञान का आज कोई तिरस्कार नहीं कर सकता। उसकी उपयोगिता और वास्तविकता के आगे सभी को सिर झुकाने के लिए विवश होना पड़ता है, वैसे ही यदि अध्यात्म विज्ञान भी अपने शुद्ध स्वरूप को कायम रख सका होता तो. घर-घर में उस महाविज्ञान का सम्मान होता। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्मवादी होने से गर्व अनुभव करता।
परंतु आज तो स्थिति ही दूसरी है। जैसे हर चीज की नकल चल पड़ी है, असली का स्थान हर क्षेत्र में नकली को मिलता जा रहा है, उसी प्रकार नकली अध्यात्म का भी झंडा चारों ओर फहरा रहा है। निकम्मे, निठल्ले, हरामखोर, आलसी, दुर्गणी, व्यसनी लोग बिना किसी श्रम, पुरुषार्थ, गुण एवं महानता के केवल रामनामी दुपट्टा ओढ़कर संत, महात्मा, सिद्ध, ज्ञानी और गुरु बन जाते हैं। वे कुछ राम नाम लेते हैं। इतनी मात्र विशेषता बनाकर वे जनता से अपने लिए अमीरों जैसा बढ़िया किस्म का निर्वाह, ऐश आराम और पैर पुजाने का सम्मान प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर उनकी शिक्षा को मानने वाले अपने परिवार की, समाज की, धर्म-कर्तव्यों की, जिम्मेदारियों को तिलांजलि देकर संसार को मिथ्या बताने, भाग्य पर निर्भर रहने की विडंबना में पड़ जाते हैं। ऐसे लोग सभी दिशाओं में असफल आलसी, प्रमादी और आजीविका की दृष्टि से भी पराश्रित होते देखे गये हैं। दुनिया हर चीज का मूल्य उसके प्रत्यक्ष स्वरूप को देखकर ऑकती है। अस्सी लाख 'अध्यात्मवादियों की यूनीफार्मधारी रजिस्टर्ड सेना तथा घर-बाजारों में रहने वाली अंध भक्तों की उससे भी बड़ी सेना के गुण, कार्य और महत्त्व को देखकर हर विचारशील को बड़ी निराशा होती है। हर समझदार आदमी अपने को तथा बच्चों को उससे छूत की बीमारी की तरह बचाने की कोशिश करता है, ताकि उसी प्रकार का घटिया जीवन उनके पल्ले भी न बँध जाए।
आज के नकली अध्यात्म का तिरस्कार होना उचित ही है। भजन भी अध्यात्म का अंग है, पर केवल मात्र भजन तक ही सीमित नहीं है। उसका वास्तविक उद्देश्य है आत्मा का सर्वांगीण विकास। ईश्वर का भजन इसमें एक बड़ा आधार है। पर आत्मसुधार, आत्म निर्माण, आत्मविकास के सुव्यवस्थित आत्म विज्ञान को अनावश्यक तुच्छ एवं उपेक्षणीय मानकर केवल मात्र भजन करते रहने से भी कुछ विशेष लाभ संभव नहीं है। ऐसे अगणित व्यक्ति देखे जाते हैं, जो भजन सारे दिन करते हैं, पूजा-पाठ में बहुत मन लगाते है, पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर की दृष्टि से वे सामान्य श्रेणी के लोगों से भी गये बीते हैं। इसका कारण यही है कि उनकी साधना एकांगी रही, भजन को ही उन्होंने सब कुछ माना और आत्म-निरीक्षण, आत्म-चिंतन, आत्म-शोधन, आत्म परिष्कार, आत्म दर्शन एवं आत्म कल्याण के महान् कार्य को हाथ में ही नहीं लिया। ऐसी अव्यवस्थित साधना के परिणामों से वैसी ही आशा की जा सकती है, जैसी कि आज दृष्टिगोचर हो रही है।
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