आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
|
13 पाठक हैं |
आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
गुरु गरिमा जितनी आवश्यक है, शिष्य की श्रद्धा, सद्भावना का महत्व उससे कम
नहीं, वरन् अधिक ही है। उसके अभाव में मात्र वरदान-अनुदान पाने के लिए
जिस-तिस की जेब काटने का मनोरथलेकर शिष्य बनने का आडम्बर ओढ़ने वालों के
पल्ले कुछ नहीं पड़ता। भीतर की स्थिति प्रकट हुए बिना कहाँ रहती है ? छद्म
से कौन प्रभावित होता है ? देवता, ऋषि और सिद्ध पुरुषों पर व्यक्ति अपनी
श्रद्धा आरोपित करता है और गुरुतत्व उस टहनी को समर्थ रखने के लिए भाव-भरा
योगदान प्रस्तुत करता रहता है। कलमी आम पर अपेक्षाकृत अधिक हैं। प्राण
प्रत्यावर्तन की दीक्षा में यही होता है। इसे अंग प्रत्यारोपण, रक्तदान
जैसी उपमा दी जाती है। दोनों अधिक घनिष्ठतापूर्वक बँधते और मिल-जुलकर किसी
महान् लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। विश्वामित्र-हरिश्चन्द्र, समर्थ गुरु
रामदास शिवाजी, चाणक्य चन्द्रगुप्त जैसे युग्मों में इसी प्राण दीक्षा का
आभास मिलता है।
|
- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान