आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
दीक्षा अंतरंग का संबंध है। इसमें बाहरी औपचारिकता का उतना महत्त्व नहीं
है। गुरु पर प्रभाव पड़ता है शिष्य की भावना का। स्तुति में कहे शब्दों या
औपचारिकता का नहीं, शिष्य के अन्तराल के स्तर का प्रभाव पड़ता है। उसी से
द्रवित होकर वे कुछ वैसा देने के लिए तैयार होते हैं जिसके फलस्वरूप
कोई कहने लायक विभूति हाथ लग सके। दर्शन करने, माला पहनने, नमन करने,
बातें बनाने भर से वह लाभ कहाँ मिलता है, जो सच्चे शिष्य को, सच्ची
पात्रता उपलब्ध कराती है ?
बेटी के विवाह से पूर्व जामाता की पात्रता हजार बार परखी जाती है, वह उसे
पाने का अधिकारी भी है या नहीं ? उसे पाकर क्या करेगा ? प्रतीत हो कि
कुपात्र जामाता उपलब्ध पुत्री से दासी वृत्ति कराने और घर भरने की बात
सोचता है, तो इसके लिए कोई अपनी बेटी नहीं देगा। सिद्ध पुरुषों की
सिद्धियाँ सुयोग्य बेटी से भी अधिक प्रिय और बड़ी कठिनाई से समर्थ बनायी
गई होती हैं। इन्हें पाने के लिए हाथ पसारने भर से काम चलने वाला नहीं है,
उसके लिए पात्रता प्रस्तुत करनी होगी और जिस शर्त पर उसे लिया गया है, उस
अनुबन्ध को निभाना ही होगा।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान