आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
उससे ऊंची हाई स्कूल स्तर की शिक्षा के समतुल्य प्राणदीक्षा है। इसमें
गुरु अपनी तपश्चर्या, पुण्य सम्पदा और प्राण ऊर्जा का एक अंश देकर शिष्य
की पात्रता एवं क्षमता बढ़ाने में योगदान करता है। शिष्य व्रतधारण करता है
और उन्हें निभाता है। इसमें आदान-प्रदान का क्रम आजीवन चलता है। यह संतान
और अभिभावक स्तर की आत्मीयता और उसके साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारी बनाये रखने
के समतुल्य समझी जा सकती है। इस उपक्रम को, सामान्य पेड़ को कलमी आम बनाने
के सदृश समझा जा सकता है, जिसमें गुरु अपनी टहनी काटकर शिष्य में आरोपित
करता है। जैसे पौधा जड़ों से लगायी गयी कलम को रस देता है और विकसित कर
लेता है, उसी प्रकार गुरु के प्राण, तप और पुण्य का अंश प्राप्त करके
शिष्य अपने साधना-पुरुषार्थ से उसे विकसित-फलित करता है। यह प्रक्रिया
पूर्णत: वैज्ञानिक विकास की विद्या है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान