आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
प्रज्ञा को इष्ट मानकर चलने वाला उन सभी लाभों को प्राप्त करता है, जो
गायत्री उपासना के माहात्म्य वर्णन में आकर्षक एवम् आलंकारिक ढंग से बताये
गये हैं। “नहि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते' आत्मा वाऽऽरे द्रष्टव्यः
श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो, जैसे उद्वबोधन वाक्यों में जिस
आत्मज्ञान की गरिमा बतायी गयी है, जिसे प्राप्त करके भगवान बुद्ध की तरह
अनेकानेक श्रेय-साधक धन्य बनते रहे हैं, वही महाप्रज्ञा आदिशक्ति गायत्री
है। उसी का हमें वरण करना चाहिए।
गायत्री का वाहन हंस है- राजहंस-परमहंस, विवेकवान्-प्रज्ञावान्। राजहंस
नीर-क्षीर-विवेक से युक्त, कृमि-कीटकों का भक्षण करने से विरत, मुक्ताओं
पर निर्भर रहता है। यह चित्रण बताता है कि श्रेय-साधक की मनोभूमि कैसी
होनी चाहिए। गायत्री जिस पर कृपा करे, वह प्रज्ञावान् होता है अथवा
प्रज्ञावान् को गायत्री का अनुग्रह प्राप्त हो जाता है। दोनों प्रतिपादनों
का तात्पर्य एक ही है। गायत्री का इष्टरूप में वरण सर्वोत्तम चयन है। इतना
निश्चित निर्धारण करने पर आत्मिक प्रगति का उपक्रम सुनिश्चित रूप से
द्रुतगति से अग्रगामी बनने लगता है, तब साधना, से सिद्धि' के सिद्धांत में
कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं रह जाती।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान