आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
ऋतम्भरा को इष्ट माना जाये, यही मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है।
आत्मज्ञान-ब्रह्मज्ञान इसी को कहा गया है। विवेकशीलता-दूरदर्शिता यही है।
न्याय और औचित्य इसी के प्रतिफल हैं। परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करने
वाले जानते हैं कि वह मात्र मन:स्थिति की ही परिणति होती है। बुरी
परिस्थितियों के लिए बुरी मन:स्थिति ही उत्तरदायी होती है। भीतर का
परिवर्तन बाहरी परिकर में आश्चर्यजनक हेर-फेर उत्पन्न करता है। दरिद्रता,
विपन्नता, विग्रह, विपत्ति एवं विभीषिकाएँ आन्तरिक निकृष्टता की ही
प्रतिक्रियाएँ हैं। उत्कृष्ट चिन्तन के कारण बन पड़ने वाले आदर्श
क्रिया-कलाप ही मनुष्य को आत्मसंतोष, जन-सम्मान, विपुल सहयोग एवं दैवी
अनुग्रह की अनेक सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ प्रस्तुत करते हैं। प्राचीन काल
की सतयुगी परिस्थिति और देवोपम मन:स्थिति की सुखद गाथा गाने वाले जानते
हैं कि अतीत की गरिमा का एक मात्र आधार, उस समय अपनाया गया उत्कृष्ट
दृष्टिकोण एवं आदर्श चरित्र ही था। इस समस्त वैभव को ऋतम्भरा की देन कह
सकते हैं। यह प्रज्ञा की देवी का अजस्र अनुदान
ही था, जिसे पाकर भारत भूमि और समस्त विश्व-वसुधा को चिरकाल तक कृत-कृत्य
रहने का अवसर मिला।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान