आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
तत्त्वदर्शन की दृष्टि से गायत्री 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' है। ऋतम्भरा अर्थात्
विवेक संगत श्रद्धा। प्रज्ञा अर्थात् श्रेय साधक दूरदर्शिता। इस समग्र
विवेकशीलता को गायत्री कह सकते हैं। इस बीज मंत्र का विशाल वृक्ष
ब्रह्मविद्या है ! अध्यात्म का यह दार्शनिक पक्ष है। साधना प्रयोजन में
इसी के विभिन्न उपचार योगाभ्यासों, तप साधनों एवं धर्मानुष्ठानों के रूप
में प्रचलित हैं। इष्ट का-लक्ष्य का-उपास्य का निर्धारण, दिव्यदर्शियों ने
गायत्री के रूप में गहन अध्यवसाय और अनवरत अनुभव-अध्यास, के आधार पर
किया है। वह प्राचीनकाल की ही तरह अपनी उपयोगिता यथावत् अक्षुण्ण रखे हुए
है।
गायत्री सार्वभौम एवं सर्वजनीन है। इसे किसी देश, धर्म, जाति, सम्प्रदाय
तक सीमित नहीं किया जा सकता है। भारत में उत्पन्न होने के कारण उसका नाम
भारतीय संस्कृति पड़ा है, पर उसकी कोई प्रक्रिया इस परिधि में रहने वाले
लोगों तक सीमित नहीं रखी जा सकती। गायत्री भारतीय संस्कृति की आत्मा कही
जाती है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसी देश के निवासी या इसी धर्म
के अनुयायी इसका उपयोग कर सकते हैं। भारतीय संस्कृति वस्तुत: दैवी
संस्कृति है, उसे मानवी संस्कृति कह सकते हैं। उसे देश, धर्म, जाति, भाषा
सम्प्रदाय आदि के नाम पर अपने-पराये की विभाजन रेखा नहीं बनानी चाहिए।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान