आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
गायत्री को इष्ट मानने की अनादि परम्परा है। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी
ने कमल पुष्प पर बैठकर आकाशवाणी द्वारा निर्देशित गायत्री उपासना की थी और
सृजन की सामर्थ्य प्राप्त की थी। इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है।
त्रिदेवों की उपास्य गायत्री रही है। देव गुरु बृहस्पति ने-दक्षिण मार्गी,
दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने-वाम मार्गी साधनायें गायत्री के ही आत्मिक और
भौतिक पक्षों को लेकर प्रचलित की-थी। सप्तऋषि, गायत्री की सप्त व्याहतियों
के प्रतीक माने जाते हैं। राम-कृष्ण आदि अवतारों की इष्ट गायत्री रही है।
इसी महामंत्र की व्याख्या में चारों वेद तथा अन्यान्य धर्मशास्त्र रचे गये
हैं। दत्तात्रेय के चौबीस गुरु गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं। चौबीस योग,
चौबीस तप प्रसिद्ध हैं। यह सभी गायत्री के तत्वज्ञान और साधना-विधान का
विस्तार है। गायत्री गुरुमंत्र है। दीक्षा में उसी को माध्यम बनाया जाता
है। हिन्दू धर्म के दो प्रतीक हैं-शिखा और सूत्र। दोनों ही गायत्री के
प्रतीक हैं। गायत्री का ज्ञान पक्ष मस्तिष्क पर शिखा के रूप में और कर्म
पक्ष कन्धे पर यज्ञोपवीत के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। परम्परागत
उपासना-विधि संध्या है। संध्या में गायत्री का समावेश अनिवार्य है। इन
तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि गायत्री अनादि धर्म परम्परा एवं अध्यात्म
परम्परा का आधार भूत तथ्य है। उपासना में उसी का प्रयोग सर्वोत्तम है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान