आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
साधक का कोई न कोई इष्ट देव होता है, साधना का विधि-विधान उसी के अनुरूप
चलता है। यों उपास्य केवल एक ही है-दिव्य जीवन, किन्तु उसके लिए पुरुषार्थ
करने की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि उपासनात्मक उपचारों के सहारे बनती हैं।
दिव्य जीवन की चरम परिणति ही पूर्णता है। इसी स्थिति को स्वर्ग एवं मुक्ति
की प्राप्ति कहते हैं। आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर-दर्शन भी यही है। इस
लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसे साधना-विधान के
रूप में अपनाना पड़ता है। साधना में शिक्षा और प्रेरणा का समावेश होता है,
फलत: उसकी प्रतिक्रिया जीवनोत्कर्ष के रूप में प्रत्यक्ष परिलक्षित होने
लगती है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान