आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
साधना मार्ग पर चलने के लिए प्रथम चरण 'इष्ट निर्धारण' का उठाना पड़ता है।
इष्ट अर्थात् लक्ष्य। प्रगति के लिए आन्तरिक महत्त्वाकांक्षा स्वाभाविक
है, पर उसका स्वरूप भी तो निश्चित होना चाहिए। उमंगें असीम हैं, उनकी
दिशा-धारा भी अनेकों हैं। पानी पर उठने वाली लहरों की तरह
महत्त्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं। एक के बाद दूसरी लहरें उठती हैं और
हवा के झोंके के साथ अपनी दिशा-धारा बदलता रहती हैं। प्रवाह दिशा धारा न
हो, तो पराक्रम अस्त-व्यस्त रहेगा। किसी लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव
ही न हो सकेगा। दिशाविहीन भगदड़ से मात्र थकान और निराशा ही हाथ लगती है।
कस्तूरी के हिरण को अभीष्ट स्थान का पता नहीं होता, फलतः वह भटकता और
थकता-खिन्न होता रहता है। मानवी अन्तरात्मा की भूख, प्रगति की दिशा में
अग्रसर होने की है, महत्त्वाकांक्षाओं के उभार इसी का परिचय देते हैं।
आत्मिक प्रगति का कोई निश्चित लक्ष्य एवम् स्वरूप सामने न रहने से वह
कायिक लिप्साओं की ओर ही लुढ़कने लगती है, है। इस स्तर की सफलताएँ काया को
भले ही कुछ सुख-सुविधाएँ प्रदान कर सकें, अन्त:करण की उच्चस्तरीय प्रगति
में इससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती। अनियंत्रित भौतिक महत्वाकांक्षाएँ
आतुर होकर कुकर्म करके भी वैभव उपार्जन में जुट पड़ती हैं और उलटे अध:पतन
एवं विक्षोभ का कारण बनती हैं।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान