आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
साधना से सिद्धि की चर्चा से अध्यात्म शास्त्र भरे पड़े हैं। हर साधना का
माहात्म्य एवं विधि-विधान विस्तारपूर्वक लिखा गया है। पग-पग पर यह
स्पष्टीकरण किया गया है कि इस पुस्तक को पढ़कर मनमाने ढंग से आरम्भ न कर
दिया जाय। गुरु की सहायता से अपनी पात्रता के सम्बन्ध में जाँच-पड़ताल
होने के उपरान्त ही क्या करना है, किस प्रकार करना है, इसका निर्धारण
कराया जाय। चिकित्सा पुस्तकों में हररोग का निदान उपचार का विस्तृत उल्लेख
रहता है। उसी प्रकार विक्रेता के यहाँ हर प्रकार की औषधियाँ तैयार
मिलती हैं। इतने पर भी चिकित्सक के परामर्श एवं निर्देशन की आवश्यकता
रहेगी ही। कोई रोगी निदान के उपचार के लिए स्वेच्छापूर्वक निर्णय लेने
लगे, तो उससे भूल एवं हानि होने की आशंका रहेगी। इसी प्रकार साधना के
संदर्भ में भी यही उपयुक्त समझा जाना चाहिए। जो भी आकर्षक लगे, उसी को
करने लगना अनुचित है। अपनी आन्तरिक स्थिति का पर्यवेक्षण स्वयं नहीं हो
पाता। अपनी आँख तक जब अपने को नहीं दिखाई देती, उसके लिए दर्पण का सहारा
लेना पड़ता है, तो फिर अन्तःक्षेत्र का विश्लेषण-पर्यवेक्षण अपने आप कैसे
संभव हो सकेगा और उसके बिना सही उपचार कैसे बने ? यहाँ चिकित्सक की
सूक्ष्म बुद्धि एवं अनुभवशीलता से लाभ उठाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं।
यही कारण है कि साधनाएँ करने-बढ़ाने के लिए निर्धारित मार्गदर्शक का
परामर्श, संरक्षण, सहयोग एवं अनुग्रह-अनुदान उपलब्ध करने की आवश्यकता
पड़ती है। वह न मिले, तो फिर समझना चाहिए कि गाड़ी रुक गई और सफलता की
सम्भावना धूमिल हो गई। यही कारण है कि “जो सद्गुरु सो दीक्षा पावें-सो
साधन को सफल बनावें” की लोकोक्ति में बहुत कुछ सार सन्निहित दीखता है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान