आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
अभिभावक संतान के शरीर उत्पादन एवं परिपोषण भर की प्रक्रिया सम्पन्न कर
सकने की स्थिति में होते हैं। सुसंस्कारिता, प्रखरता से संतान को सम्पन्न
बनाने के लिए किसी ऐसे महाप्राणों का आश्रय लेना पड़ता है, जो इस दृष्टि
से समर्थ हों।
गुरुकुलों में रहकर शिक्षा और प्रखरता उपलब्ध की जाती है। जब यह निकटता
संभव नहीं होती, तो पत्राचार विद्यालय, रेडियो पाठ्यक्रम, टेलीफोन वार्ता
अथवा समय-समय के वार्तालाप द्वारा भी विचार-विनिमय का, आदान-प्रदान का
उपक्रम चलाना पड़ता है। गुरु-शिष्य की दीर्घकालीन समीपता संभव न होने पर
अन्यान्य सूत्रों से भी यह संबंध गतिशील रखा जा सकता है। मुर्गी अपने
अण्डे को पेट के नीचे रखकर सेती, किन्तु कछुई रेती में अंडे देकर अपने
प्राण-प्रवाह से सेती और पकाती रहती है। यदि इसी बीच कछुई मर जाय, तो रेती
में छोड़ा गया अंडा भी सड़ जायेगा। ऐसा आदान-प्रदान गुरु-शिष्य के बीच
चलता है। राम-विश्वामित्र के कृष्ण-संदीपन के गुरुकुल में पढ़ते थे,
किन्तु जब पढ़ने की स्थिति न रही और अलग रहने का अवसर आया, तो भी वह
आदान-प्रदान प्रत्यावर्तन सूत्र यथावत् स्थिर रहा। माध्यम बदल गए, तो भी
समर्थ मार्गदर्शन और अनुदान-प्रतिदान की श्रृंखला टूटी नहीं। यही क्रम
स्नेह-सूत्रों के जुड़े रहने पर अन्यत्र भी चलता-रह सकता है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान