आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
माता का पता न हो, तो यह समझा जायेगा कि वह अनुचित उत्पादन रहा होगा और
लुक-छिपकर कहीं से कहीं पहुँचाया गया होगा। पिता का नाम पता न हो, तो भी
माता पर कुलटा होने का आक्षेप आता है और संतान पर अवैध होने का लांछन लगता
है। सुसंस्कारिता संवर्धन के लिए गुरु वरण का विधिवत् प्रयास हुआ नहीं
किया नहीं गया, तो यह एक कमी है, जिसे दूर करने के लिए शास्त्रकारों ने हर
किसी को प्रोत्साहित किया है, इसके लिए लाभ और हानि के दोनों ही पक्ष
सुझाये जाते हैं। लगता है 'निगुरा' शब्द निन्दाबोधक शब्दावली में एक गाली
की तरह प्रयुक्त हुआ है। जो हो, शास्त्र प्रतिपादनों में इस तथ्य को और
उतेजित शब्दों में प्रतिपादित कर गुरु की आवश्यकता समझायी गई है। उसकी
पूर्ति की ही जानी चाहिए। दीक्षा और यज्ञोपवीत का परस्पर सम्बन्ध है।
यज्ञोपवीत द्विजत्व का-दूसरे जन्म का प्रतीक है। हर माता के गर्भ से नर
पशु ही जन्म लेता है, इसे सुसंस्कारी बनाने की प्रक्रिया समर्थ गुरु
द्वारा ही सम्पन्न होती है। खदान से मिट्टी मिली धातुएँ ही निकलती हैं।
उनका परिशोधन भट्टी में तपाने की प्रक्रिया द्वारा ही सम्पन्न होता है। न
तपाने पर वे अनगढ़ ही बनी रहेंगी। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही तथ्य काम
करते हैं।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान