आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
दीक्षा देने का अधिकार मात्र महाप्राणों की है। जिसके पास कुछ वैभव है,
वही दूसरे को दान दे सकेगा। जो स्वयं ही खाली हाथ है और याचना पर निर्वाह
करता है, उससे कोई अनुदान मिलने की आशा करना व्यर्थ है। दीक्षा दे सकने
वाले व्यक्तित्व उपलब्ध होना कठिन है। नाटकीय खिलवाड़ करना हो, तो कोई भी
व्यक्ति आपस में गुरु-शिष्य का अभिनय-प्रहसन कर सकते हैं किन्तु पात्रता
और यथार्थता न होने पर वह बात बनती नहीं, जिसकी अपेक्षा की गयी है। इसलिए
शास्त्रकारों ने यह सम्बन्ध स्थापित करते समय गुरु की समर्थता और शिष्य की
श्रद्धा, (पात्रता को भलीप्रकार ठोंक बजा लेने कौ बात कही है अन्यथा
मात्र, लकीर पीट लेने से बात बनेगी नहीं। निर्धारित अनुशासन के
अनुसार चलने पर अनुपम लाभ मिलना सुनिश्चित है।
शास्त्रकारों ने गुरु विहीन की निन्दा की है। कहा गया है कि उसके हाथ से
किया श्राद्ध-तर्पण पितरों तक नहीं पहुँचता। कहीं तीर्थफल न मिलने की बात
कही है, कहीं उसके हाथ का जल न पीने जैसी प्रताड़ना का उपाय सुझाया गया
है। यह कथोपकथन अत्युक्तिपूर्ण, आवेशग्रस्त अथवा आलंकारिक दीखते हैं, तो
भी उनके पीछे यह प्रेरणा-प्रतिपादन तो है ही, कि माता-पिता का परिचय दे
सकने की तरह हर व्यक्ति को अपने गुरुद्वारे का भी परिचय देना चाहिए।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान