आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
तत्वत: यह मानवी विद्युत को हस्तान्तरित करने की प्रक्रिया हैं। आग के
समीप बैठने से गर्मी आती है, ठंडे तहखाने, बर्फखाने में बैठने से कंप-कंपी
छूटती है। चन्दन वृक्ष के नीचे उगे झाड़-झंखाड़ भी सुगंध देने लगते
हैं। स्वाति-बूंद का सहयोग पाकर सीप मोती उगलने लगती है। यह समर्थ
सान्निध्य का प्रभाव है, जिसकी तुलना पारस, कल्पवृक्ष और अमृत से की जाती
है और इसके समीप पहुँचने, घनिष्ठ बनने, आत्मसात् करने का परिणाम कायाकल्प
जैसा होता है। इन उदाहरणों को गुरु-शिष्यों के मध्य प्रतिष्ठापित
घनिष्ठता, आत्मीयता एवम् प्रत्यावर्तन श्रृंखला के साथ जोड़ा जा सकता है।
यों हर मनुष्य में एक विद्युत धारा विद्यमान है, पर महामानवों में यह
प्राणशक्ति अपेक्षाकृत कहीं अधिक होती है। उसे तेजोवलय के रूप में देखा और
अनुभव किया जा सकता है। वह अपने क्षेत्र में एक विशेष प्रकार का प्रभाव
छोड़ती है। समीपता-घनिष्टता होने पर महाप्राणों, सशक्तों का प्राण-प्रवाह,
न्यून प्राण वालों की ओर अनायास ही चल पड़ता है। प्रत्यक्ष-कथनीपरक न होने
पर भी, परोक्ष रूप से प्राणवानों के व्यक्तित्व से निकलने वाली ऊर्जा,
अपने समीपवर्ती प्राणियों और पदार्थों को प्रभावित करने लगती है। ऋषि
आश्रमों के समीपवर्ती क्षेत्र में सिंह एवं गाय वैर-भाव भूलकर एक घाट पानी
पीते और स्नेह-सद्भाव का परिचय देते रहे हैं। वहाँ वे अपने सहज स्वभाव को
भूल जाते हैं। यही सब कुछ दीक्षा के माध्यम से सम्पन्न होता है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान