आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
सामान्यतया यह उदाहरण भक्त और भगवान के बीच संबंध स्थापित होने के सन्दर्भ
में दिये जाते हैं पर उन्हें आँशिक रूप से गुरु-शिष्य के मध्य समर्थता और
श्रद्धा के संयोग से उत्पन्न घनिष्ठता पर लागू किया जाय, तो वहां भी
उदाहरण सटीक बैठ जाता है। गुरु बृहस्पति के मार्गदर्शन में देवता देवत्व
प्राप्त कर सके और शुक्राचार्य के अनुग्रह से असुरों को भौतिक सिद्धियाँ
हस्तगत करने का अवसर मिला। यह सब वे दोनों, मात्र अपने बल-बूते नही
प्राप्त कर सकते थे। गुरु का मार्गदर्शन एवं शक्ति-अनुदान तथा शिष्यों की
श्रद्धा एवं पुरुषार्थ के योग से ही चमत्कारी परिणाम प्रकट होते हैं।
प्राचीन काल में गुरु परम्परा भी वंश परम्परा की तरह गौरावान्वित होती थी।
वंश के गोत्र, पूर्वजों से ही नहीं चलते, वरन् गुरु परम्परा से भी चलते
हैं। ऋषियों के गोत्र हर जाति वर्ग में पाये जाते हैं। हो सकता है कि उनके
पूर्वज भी ऋषि रहे हों और वंश परम्परा के अनुसार उनके गोत्र चले हों। हो
सकता है, वे उनके गुरु रहे हों और गुरु परम्परा को ही वंश परम्परा का
प्रतीक मान कर उनका गोत्र अपनाया गया हो। यहाँ प्रतीत होता है कि पूर्वजों
में, दोनों पक्षों को समान महत्व एवं सम्मान दिया गया है ! तराजू को दो
पलड़ों में से एक पर माता-पिता दोनों को, और दूसरे पर अकेले गुरु को रख कर
तौला जाता रहा है। कारण स्पष्ट है, शरीर से सम्बन्धित भौतिक साधनों को
उपलब्ध कराने में माता-पिता का जितना योगदान है, आत्म कल्याण के लिए
व्यक्तित्व में प्रखरता उभारने वाले गुरु का महत्व उनसे-किसी प्रकार कम
नहीं है। यह सरकस में विलक्षण काम करने वाले जानवरों को साधने से भी कठिन
काम है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान