आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
एक व्यक्ति के कई गुरु होने में कोई दोष नहीं। पूज्य गुरुदेव को गायत्री
मंत्र और उपनयन महामना मालवीय जी ने प्रदान किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय
से युगान्तरीय चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रज्ञात्मा को वे सूक्ष्म
गुरु मानते और उन्हीं के संकेतों पर अपनी गतिविधियों का ताना-बाना बुनते
हैं। ऐसा हर कोई कर सकता है। दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरुओं की बात
सर्वविदित है। प्राचीनकाल में भी ऐसा होता रहा है। इसकी असंख्य साक्षियाँ
विद्यमान हैं।
समर्थ सत्ता के साथ जुड़ जाने पर किसी भी सामान्य को असामान्य बनने का
अवसर मिल सकता है। बिजलीघर के साथ सम्बन्ध जुड़ जाने पर ही, बल्ब, पंखे,
हीटर, कूलर आदि उपकरण अपना काम करते हैं। टंकी के साथ जुड़े रहने पर नल तब
तक पानी देता रहता है, जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती। चन्द्रमा, सूर्य की
चमक से चमकता है। हिमालय से जुड़ी हुई नदियों का जल सूखता नहीं। पुलिस का
अदना सा सिपाही भी अपने को शासन तंत्र का प्रतिनिधि मानता और गर्दन ऊंची
उठाकर चलता है। यह सम्बन्ध जुड़ने की बात हुई। समर्थता के साथ जुड़ जाने
पर असमर्थता भी समर्थता में बदल जाती है। गन्दे नाले का पानी गंगा में मिल
जाने पर गंगा जल की तरह सम्मान पाता है। पेड़ से लिपटने पर बेल उतनी ही
ऊंची उठ जाती है, जबकि वह सामान्यतया अपने बल-बूते जमीन पर ही रेंगती है।
अशिक्षित और निर्धन घर की बेटी भी किसी विद्वान या सम्पन व्यक्ति की पत्नी
बन जाती है तो उसका, सम्मान एवं वैभव पति जितना ही हो जाता है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान