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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


“अब देखो माया, कल तो जा ही रही हूँ। नयी जगह है और नयी नौकरी। अब तो यही समझ लो कि जाना अपने पैरों का है, आना पराये पैरों का। क्या तुम्हारे बड़े दा चले गये ?"

"अरे हाँ, कब के," निर्दोष माया क्या कभी सपने में भी सोच सकती थी कि उसके सामने मुसकराती वह भुवनमोहिनी कल उसी के बड़े दा के कन्धे से लगी पल-भर को इन्द्राणी बन गयी थी।

"बड़े दा तो तीन बजे ही चले गये, वैसे तो दिल्ली से काबुल पहुंचने में सुना सात घण्टे लगते हैं। पर छुट्टी ही नहीं थी।" आशा के निर्वात दीप की मृतप्राय
ज्योति-किरण भी दप से बुझ गयी। जिस दीये को कली ने स्वयं ही फूंक मारकर बुझा दिया था, उसमें क्या एक बत्ती अनजाने में अब तक धुक-धुक कर रही थी ? क्या पता न गया हो ? एक दिन की छुट्टी बढ़ायी भी तो जा सकती है ?

"जानती हो, बड़ा मज़ा हुआ," माया ने कली का हाथ पकड़ लिया, “सच तुमने मिस किया। कल यहाँ रहतीं, तो तुम कुन्नी को देख लेती।"
आवेशमूलक तेजस्वी कली झुककर विनम्र हो गयी, "अच्छा ! क्या कल यहाँ आयी थी ?"
"हाँ, पता नहीं कल पार्टी के बाद बड़े दा कहाँ ग़ायब हो गये !"
कली का चेहरा चिबुक से लेकर कर्णमूल तक लाल हो गया। सरला माया अपनी ही धुन में बकती जा रही थी, “यहाँ बाबूजी, अम्मा का बुरा हाल हो गया। असल में जब छोटे दा का तार आया, तब भी अचानक गोली-सी दगी थी और फिर छोटी भाभी भी पर उगाकर ऐसी फुर्र से उड़ गयी। इसी से दोनों अब अच्छी बात सोच ही नहीं पाते। कभी कहते, लाल बाज़ार में पुलिस का लाठी-चार्ज हुआ है, कहीं लल्ला वहीं न हो; कभी कहते, हो न हो, मोटर टकरा दी होगी। पाण्डेजी को फ़ोन कर दिया, और वे बेचारे ताबड़तोड़ भागते आये। सुना, कुन्नी तो बेचारी रोने भी लगी थी।"

सौतिया डाह से कली का सर्वांग दहक उठा। एक बार समूचे संसार को भस्म करने की ज्वाला आँखों में फिर उतर आयी।

जो निर्मोही तटस्थ होकर उसे बार-बार दूर ढकेलता रहा था; आज चलती बेला उसके क्लान्त माथे पर अपनी चौड़ी हथेली के पल-भर के स्पर्श से उसे किस अनोखे कीलक से ऐसे भरमा गया था ! क्यों कुन्नी के नाम से उसका सर्वांग दहकने लगा था!

जब वह व्हील पर टिकी हुई चौड़ी हथेलियों पर अपने अधरों की सील मोहर लगाने झुकी थी क्या तब पल-भर को भी उसके दिमाग़ में यह कटु सत्य नहीं कौंधा? सरलता से वश में आ गयी नारी क्या कभी स्थायी रूप से पुरुष के हृदयासन पर आसीन होकर रह सकती है ? कभी नहीं। किसी क्षण भी कुन्नी आकर उनकी खोखली अनामा सील मुहर को व्यर्थ कर सकती है। कुन्नी का कुल है, गोत्र है, खानदान है, है पिता की प्रतिष्ठा ! और कली का न कुल है, न गोत्र, न खानदान न पिता की प्रतिष्ठा है !
"अरे आपने तो सामान भी बन्द कर लिया ? अम्मा ने तो मुझे यही देखने भेजा था कि देख आऊँ, आप आ गयीं या नहीं। और मैं यहाँ बातों में लग गयी। कह रही थीं—'कल तो बेचारी इतनी दूर चली जाएगी, दो बेला उसे उसकी पसन्द की सब चीज़ खिला दूँ'—और पसन्द भी कैसी है आपकी...'' उसने हँसकर कली की उदासी का व्यूह भंग करने की चेष्टा की, “सुना आपको करेला बेहद पसन्द है ?"

"क्या करूँ माया," कली ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें माया के भोले चेहरे पर जड़ दी, "मुझे हमेशा कड़वी चीज़े ही पसन्द आती हैं, पर आज तो कुछ भी खाने को जी नहीं कर रहा है, बेहद थक गयी हूँ।"

"वाह जी, थक कैसे गयी हैं ! हम आपके लिए इतनी सारी चीजें बनाकर भूखे बैठे हैं !'' माया उसे चौके में खींच ले गयी। जया-दामोदर पुत्री सहित सिनेमा देखने चले गये थे। दो दिन पूर्व अपने कमरे से ही कली ने भयानक गृह-युद्ध की एक-एक चिनगारी उड़ती देखी थी। रात-भर जया की सिसकियों ने उसे सोने नहीं दिया था। लगता था क्रोध से भुनभुनाती रोती-कलपती जया किसी भी क्षण पति को धक्का मारकर बाहर कर देगी। पर कैसा विचित्र मनोमालिन्य था इस दम्पती का ! कभी एक-दूसरे के रक्त के प्यासे और कभी प्रणय के !
अम्मा ने कली की थाली को कटोरियों से सजा दिया, तो वह हँसने लगी—"लगता है कल प्लेन में ही अपच होकर मरूँगी अम्मा !"

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