नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
"चुप कर, इतनी दूर जा रही है और ऐसी
अलच्छनी बानी मुख से निकाल रही है !
मरें तेरे दश्मन। मेरा तो मन न जाने
कैसा कर रहा है। वहाँ तो सीताजी को भी
राच्छसियों ने घेर लिया था। उन्हें
छुड़ाने जैसे रामजी आये थे, भगवान् करे
तुझे छुड़ाने भी कोई आ जाये।"
"जिन रामजी को छुड़ाने मैं बुलाऊँगी
उनका नाम सुनकर फिर क्या तुम उन्हें आने
दोगी अम्मा ? फिर तो शायद तुम अपने चौके
से मुझे अभी बाहर खदेड़ दोगी।" कली
करेले को मुँह में भर कर चूसती अम्मा को
छेड़ने लगी।
अम्मा का चेहरा न जाने कैसा हो गया।
"क्यों री, क्या कहीं किसी
मुसल्ले-किरिस्तान से तो शादी नहीं कर
रही है ? ऐसा मत करना, कली ! कितनी बार
तुझसे तेरे माँ-बाप का पता माँग चुकी
हूँ। पर तू दे, तब ना !'
"क्या करोगी पता लेकर अम्मा ?" कली के
मुख में पड़ा करेला अपनी स्वभावगत कटुता
खोकर कितना मीठा लग रहा था।
"अरी करूँगी क्या बावली ! यही लिखूँगी
कि ऐसी सोने का टुकड़ा लड़की दी है
भगवान् ने, पीले हाथ कर राजरानी बना
डालो।"
"पर राजा मिले तब न अम्मा," कली की
बड़ी-बड़ी आँखों में क्षण-क्षण बदलते
रंग को माया एकटक देख रही थी। “इसी से
तो रावण के देश में जा रही हूँ।" वह
अँगुलियाँ चाटती उठ गयी।
"अरी तुझे कौन बातों में हरा सकेगा,"
अम्मा उठकर कटोरी भर खीर ले आयीं।
"लल्ला को हमारी खीर बेहद पसन्द है, उसी
के लिए बनायी थी पर खायी कहाँ! दो चम्मच
खाकर उठ गया।"
कली हास-परिहास सब भूल गयी। विवेकहीन
जिह्वा पर एक निर्लज्ज याचना
फिसलते-फिसलते रुक गयी। 'वही जूठी खीर
मुझे ला दो न अम्मा !' जीभ न काट
लेती तो शायद सचमुच ही अपनी स्वाभाविक
मुँहफट निर्लज्जता से उस जूठी खीर के
कटोरे को माँग बैठती।
उस दिन माया स्वयं ही ज़िद कर उसके पास
सो गयी।
"आप तो कह रही हैं, अभी आप अपना नया पता
भी नहीं जानतीं, अच्छा तो आप ही हमको
पहले चिट्ठी लिखिएगा। हमारा पता तो
जानती हैं ना ?'' माया हँसकर उसकी ओर
करवट बदल कर लेट गयी।
काश, उस पते ही को कली भूल पाती !
“क्यों नहीं लिखूगी माया," कली ने उस
सामान्य परिचिता स्नेही लड़की की मुट्ठी
दोनों हाथ में पकड़ ली।
उस चेहरे को देखकर यल से भुलाया गया
दूसरा चेहरा सामने आ गया।
उसे शायद वह अब कभी नहीं देख पाएगी, पर
क्या पता, वह उसे देख ले ! पत्नी के साथ
देखी गयी किसी फ़ैशन परेड में,
विश्व-मेले के सजे कक्ष में या किसी
फ़ैशन पत्रिका के मुखपृष्ठ पर !
एक बार कली के जी में आया कि एक दिन के
लिए इलाहाबाद चली जाये, विवियन से मिलकर
उसे अपने जीवन के नये मोड़ पर पल-भर को
खड़ी करने में दोष ही क्या था ! वह
प्रवीर को देख भी चकी थी। और देखकर शायद
कछ अप्रसन्न भी हुई थी, पर स्टेशन चलने
का समय हुआ तो डाकिया विवियन का पत्र दे
गया। पढ़ते ही कली ने झुंझलाकर फाड़
दिया। अब क्या करेगी इलाहाबाद जाकर।
जिसे देखो वही घोंसला बनाने के लिए
तिनके चुन रहा है। विवियन की सगाई हो
गयी थी। और निकट भविष्य में होनेवाले
अपने विवाह के ड्रेसों की शॉपिंग के लिए
वह कली को लेकर दिल्ली जाना चाहती थी।
कली का क्या यही काम रह गया था ? मॉडल
है, तो क्या वह अपने मित्रों-प्रियजनों
की भी मॉडल ही बनती रहेगी ? अब न वह
किसी को अपना पता देगी न चिट्ठी लिखेगी।
किसी केन्द्रच्युत, उल्काखण्ड-सी वह
नवीन परिवेश में गहरी डुबकी लेकर ही ऐसी
छिप जाएगी कि कोई जाल बिछाकर भी उसे न
ढूँढ़ सके।
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