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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


इक्कीस


वह घर पहुंचा, तो बरामदे में खड़ी परिवार की भीड़ को देखकर खिसिया गया। चिन्तित बाबूजी उसकी अनुपस्थिति में कई बार पाण्डेजी को फ़ोन कर चुके थे। पता नहीं किसी दुर्घटना में न फँस गया हो, बड़ी तेज़ गाड़ी चलाता है। उनके चिन्तातुर स्वर की छूत शायद पाण्डेजी को भी लग गयी। कुछ ही देर में गाड़ी में कुन्नी को लेकर वे स्वयं उपस्थित हो गये। चिन्तातुर जर्जर दम्पती छोटे पुत्र की अकाल मृत्यु से आवश्यकता से अधिक भीरु बन गये थे। कुन्नी को वहीं छोड़कर पाण्डेजी गाड़ी लेकर नटू घोष के यहाँ भी जाकर देख आये थे—लौटकर आ रहे थे कि प्रवीर की गाड़ी देख ली।
“कहाँ चले गये थे बेटा, हमने तो पूरा कलकत्ता ही छान डाला। कुन्नी तो रोने लगी, बड़े कच्चे दिल की है हमारी कुन्नी।"
प्रवीर खिसिया गया। बाबूजी को भी क्या सूझी, जो उन्हें फ़ोन कर दिया। कुन्नी ने मूक कटाक्ष से भावी पति को बींधकर रख दिया।
"तू तो कभी इतनी अबेर नहीं करता था लल्ला ! यही मैं अभी पाण्डेजी से कह रही थी।" अम्मा भावी पत्र-वध के पास ऐसे अधिकार से खड़ी थीं जैसे उसका वरण कर अभी-अभी डोली से उतारा हो ! कुन्नी ने शायद भावी सास-श्वसुर की उपस्थिति के सम्मान में सिर ढाँक लिया था। इससे उसका गोल-गोल चेहरा और गोल लग रहा था। पति के रुष्क-शुष्क उलझे बाल और सुदर्शन चेहरे से वह अपनी आँखें हटा ही नहीं पा रही थी। कल वह चला जाएगा, यही सोचकर स्निग्ध दृष्टि तरल हो उठी थी।
“अब बहुत रात हो गयी है। समधिन, हमें आज्ञा दीजिए, आपका लड़का घर आ गया, हमारी भी चिन्ता दूर हुई।"
"बैठिए ना," माया ने दो-तीन कुरसियाँ खींचकर सामने बढ़ा दी। कुन्नी शायद बैठ भी जाती, पर पाण्डेजी अधैर्य से उठ गये।
"नहीं बेटी, अब बैठेंगे नहीं दस बजे की ट्रेन से मन्त्रीजी दिल्ली जा रहे हैं, जाने से पहले उन्हें एक बार फिर रिमाइण्ड कराना होगा। अच्छा बेटा. टिल वी मीट." उन्होंने बड़े लाड से भावी जामाता की पीठ थपथपायी। समधी-समधिन से विदा ली और अनिच्छा से अड़ती पुत्री को एक प्रकार खींचकर कार में बिठा दिया।

कार के 'गेट' से निकलते ही अम्मा देर से घर लौटे पुत्र के सामने खड़ी होकर रुंधे स्वर में कहने लगी, “आज तूने हम दोनों की उमर कम-से-कम बीस बरस तो बढ़ा ही दी बेटा। मन्त्रीजी सब ठीक ही कर देंगे। पाण्डेजी ने अभी बतलाया कि तू भी पन्द्रह अप्रैल के लिए राजी हो गया है। तब तक हमें भी सब सुविधा है। जया का ऑपरेशन मार्च में है और तेरी बदली भी हो जाएगी।"

इतने आनन्द के दिन भी पुत्र के सूखे चेहरे का रहस्य अम्मा की समझ में नहीं आया। वह बिना कुछ कहे अपने कमरे में चला गया। माया खाने के लिए बुलाने गयी तो कह दिया, "कहीं खा आया हूँ," अम्मा भुनभुनाती रहीं, पर वह नहीं आया। हारकर माया कमरे ही में खीर का कटोरा रख आयी। उस रात को प्रवीर ने द्वार की अर्गला खुली ही छोड़ दी। सामान्य हवा के झोके से भी द्वार हिलता, तो वह चौंककर देखने लगता। क्या पता स्वभाव से ही आनन्दी वह आमोदी लड़की कमरे में अचानक कूदकर लँगड़ी कुरसी में हाथ-पैर समेट सो जाये।

पर वह नहीं आयी। आती भी कैसे ? क्या वह स्वयं ही उसके चेहरे से अपना चेहरा सटाकर नहीं कह गयी थी कि वह अब अपने को ट्रस्ट नहीं करती !

दूसरे दिन तो उसे तीन बजे जाना था। क्या पता, चलने से पहले शायद आ जाये ! पर अपनी व्यर्थ आशा की खोखली ललक को प्रवीर स्वयं जानता था। आने से कौन-सी बात बन जाएगी ? वह सिर ढाँककर अम्मा के पास खड़ी कुन्नी को कहीं धकेल सकता था ?

प्रवीर चला गया और उसके, जाने के तीन घण्टे बाद दिन डूबे सूखा चेहरा लटकाकर कली द्वार पर खड़ी हो गयी। माया कैक्टस के गमले ठीक कर रही थी। उसको देखते ही हाथ पोंछकर बढ आयी। वह उत्साह से जैसे फटी जा रही थी।

"अरे, क्या आप फिर दौरे पर चली गयी थीं ? जानती हैं, बड़े-दा की शादी की डेट फिक्स हो गयी। अप्रैल में होगी। मैं मार्च में कुछ दिनों के लिए पहाड़ जाकर फिर लौट आऊँगी। दीदी का ऑपरेशन भी है ना—आप तो आएँगी ना शादी में ?"

सूखा चेहरा और सूख गया। फीकी हँसी हँसकर, एकदम अपने बड़े भाई की सरत के ठप्पे की मोहक बहन को कली हाथ पकड़कर अपने कमरे में खींच ले गयी।

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