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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


बीस


"ओ माई डियर, सॉरी !'' कह लौरीन ने बढ़कर पाण्डेजी के दोनों हाथों को पकड़कर बड़ी आत्मीयता से झकझोरा ! फिर मुन्नी और कुन्नी के गालों को चूमकर उनकी माँ के सम्मुख दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं।

न उन्होंने उस विनम्र नमस्कार का प्रत्याभिवादन किया, न कुछ बोली। पल-भर को चेहरा तमतमाकर फिर स्वाभाविक उदासीनता में रँग गया। थोड़ी ही देर में सबकी दृष्टि बचाकर वे उठकर भीतर चली गयीं। स्पष्ट था कि इसी चेहरे से ही लम्पट लगनेवाली ऐंग्लो-इण्डियन महिला के आगमन से असन्तुष्ट होकर ही पाण्डे-गृहिणी भीतर चली गयी थीं।

"क्यों लौरीन, कैसी चल रही है तुम्हारी पौल्ट्री ?" पाण्डेजी ने गरम चाय का प्याला अतिथियों को थमाकर पूछा। फिर मन्त्रीजी की ओर मुड़कर कहन
लगे-"हमारी लौरीन सच्चे अर्थ में समाजसेविका है। कहती है, जब तक भारत के हर अण्डरनरिश्ड बच्चे के हाथ में एक-एक ताज़ा अण्डा नहीं देख लेगी, तब तक कब्र में पैर नहीं रखेगी।"

हो-हो कर लौरीन ने अपनी मर्दानी हँसी से गोल कमरा गुंजा दिया।

विद्युतरंजन का प्रभावशाली व्यक्तित्व, ज़रीदार कुन्नी की खद्दर की धोती और अहिंसात्मक मटके की रेशमी कमीज़ में और भी खिल उठा था।

“एकदम 'साहब बीबी गुलाम' वाले ज़मींदार लगते हैं ना," मुन्नी प्रवीर के कान के पास आकर फुसफुसायी, "बड़े काम के आदमी हैं। तुम्हारी बदली के लिए डैडी अभी इनसे भी कहेंगे। आओ, तुम्हारा परिचय करा दूँ।"

"क्यों, दिल्ली आना चाहते हो क्या ?'' विद्युतरंजन की मोहक हँसी ही उसका सबसे बड़ा आकर्षण थी। “मैं तो कहता हूँ वहीं बने रहो, एक बार पाण्डे की लड़की के हाथ में पड़े, तो बकरा बनाकर बाँध लेगी !'' फिर जोर से हँसने लगे।

"देखून" मुन्नी तुनककर बँगला पर उतर आयी, "भालो होबे ना बोलछी।" (देखिए, मैं कहती हूँ अच्छा नहीं होगा।) बड़े-हलके-फुलके, मैत्रीपूर्ण राजसी वातावरण में प्रवीर का चित्त हलका बनकर पक्षी-सा देर तक उड़ता रहा। चलने का समय हआ, तो एक बार फिर पूरा परिवार उसे विदा देने आ गया। आज वह अपनी ही गाडी लेकर आया था।

"देखो बेटा," पाण्डेजी ने पैर छूने को झुके प्रवीर की पीठ पर हाथ धर दिया, "हमने पण्डितजी से पत्रा खुलवाकर डेट फिक्स कर दी है। पन्द्रह अप्रैल की तिथि ही तुम दोनों को ठीक पड़ती है। साथ ही हमें भी। मार्च तक हम तुम्हें दिल्ली ले आएँगे। और देखो, अपने बाबूजी से कह देना दामोदर की चिन्ता न करें, सब ठीक हो जाएगा।"

उस दिन भी यह कुन्नी की ओर ठीक से आँख उठाकर नहीं देख पाया। कार को वह भीड़-भरे चौराहे से निकालता चला जा रहा था कि विक्टोरिया मैमोरियल के सामने आ रहे एक लम्बे जुलूस को देखकर उसने गाड़ी पीछे कर ली। इन विवेकहीन बचकाने जुलूसों से वह गज-भर की दूरी ही बरतता था। बड़े कौशल से उसने गाड़ी बैक कर बरगद की जटाओं के तोरण द्वार में छिपा ली और स्वयं उतरकर पार्क में चला गया। पेड़ों के झुरमुट में पड़ी बेंच की ओर वह बढ़ा और ठिठककर रह गया। क्या वह किन्नरी उसकी उपस्थिति को सूंघकर ही आकाश से टपक पड़ी थी।

वही थी, उस मुद्रा को वह दस गज़ की दूरी से भी पहचान सकता था। वैसी ही निश्चेष्ट, जैसे उस रात को दरबान की बेंच पर पड़ी थी। क्या आज भी गोली खाकर आयी थी। पहले उसने सोचा, मडकर दसरी ओर निकल जाये, पर फिर ऐसे सुअवसर को हाथ से जाने देना मूर्खता थी। उसे उस एकान्त में समझाना घर पहुंचकर समझाने से कहीं अच्छा था। उसे जगाकर घर छोड़ने का नोटिस आज प्रवीर उसी
बेंच पर दे देगा। वह निकट पहुँचा, तो उसने चौंककर देखा, फिर हड़बड़ाकर बैठ गयी, “ऐ काबुलीवाला, वाह, आज तो झोली लेकर आये हो—देखू क्या है तुम्हारी झोली में-'' उस आनन्दी लड़की ने लपककर प्रवीर के हाथ में लटका ब्राउन काग़ज़ का थैला छीन लिया तो वह खिसिया गया। कैसा मूर्ख, अन्यमनस्क व्यक्ति था वह ! चलने लगा तो उसकी भावी सास ने अम्मा के लिए मेवों का एक थैला दिया था। वह न जाने किस सोच में डूबा था कि थैला हाथ ही में लिये उतर गया। “वाह, वाह, एकदम टैगोर के काबुलीवाला के मेवे हैं-काजू, भुने बादाम, नमकीन, पिस्ते—कौन कहता है हमारे देश में भुखमरी है।" उसने मुट्ठी-भर मेवे निकालकर गोदी में रख लिये और खाने लगी। प्रवीर को खड़ा देख उसने पूरे मेवे गोदी में ही उड़ेल लिये और बेंच पर हथेली थपथपाकर बोली, 'बैठो ना, खड़े क्यों हो ? लगता है ससुराल की थैली, है क्यों ?"

"मुझे आपसे कुछ बातें करनी है मिस मजूमदार, हँसी-मज़ाक़ करने यहाँ नहीं आया हूँ।' प्रवीर के गम्भीर स्वर में बनावटी गाम्भीर्य नहीं था। दस्युकन्या ने बड़ी-बड़ी काली पुतलियाँ घुमाकर दोनों हाथ छाती पर धर लिये, “बाप रे बाप ! चलिए बोल तो फूटा, मैं तो समझी थी आप गूंगे हैं। पर देखिए ना, इच्छाशक्ति भी निश्चय ही अपना अस्तित्व रखती है। मैं अभी यहाँ पड़ी-पड़ी सोच रही थी कि काश, आप आज यहाँ आ जाते। सुना कल जा रहे हैं। चलिए, आज आपसे पूरा कनफेशन कर देती हूँ। कैथोलिव, नन्स से शिक्षा पायी है ना, इसी से संस्कार वही हैं।"

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