नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
"हमने चाय कब की पी ली और दो अतिथि आये
नहीं—न विद्युतरंजन आया न लौरीन-"
“मैं बताऊँ डैडी," मुन्नी ने गप्प से एक
पेस्ट्री मुख में धर ली, “मुझे लगता है रंजन
काका लौरीन आण्टी को अपनी गाड़ी में ला रहे
होंगे। बेचारी लौरीन आण्टी की गाड़ी को तो
सुना लखनऊ में पकड़-पुकड़कर जला दिया।"
"अच्छा ?'' मन्त्रीजी लौरीन को वर्षों से
जानते थे।
“आण्टी की नेमप्लेट पर कोलतार पोतने लगे तो
उन्हें गुस्सा आ गया। अँगरेज़ी में ही आण्टी
ने भाषण झाड़ दिया। बस फिर क्या था—पूरी
गाड़ी ही हाथ से निकल गयी।"
“पता नहीं क्या हालत हो गयी है देश की ?''
पाण्डेजी का खिन्न स्वर शायद अबोध पुत्र के
लिए भी मूक क्षमायाचना कर रहा था, "आप बताइए
भला, क्या इस लीपापोती से अँगरेज़ी देश से
चली जाएगी ? निकालने के तौर-तरीक़े और होते
हैं, अब आप ही लोगों ने अँगरेज़ों को देश से
निकाल बाहर किया तो कौन-सी कोलतार पोती थी
?'' मन्त्रीजी को सहसा अपने सिर पर पड़ी
लाठियाँ और गोरे सिपाहियों की ठोकरें याद हो
आयीं। उनकी छाती रिक्रूटमेण्ट सेण्टर में
खड़े किसी रंगरूट की छाती की भाँति तनकर
निकल आयी। बड़ी गर्वपूर्ण काकदृष्टि से
उन्होंने इधर-उधर देखा।
सारी बहस के बीच एक मूर्ति उदासीन होकर
सोफ़े के कोने पर बैठी थी। न उस वीतराग
चेहरे पर उत्साह था, न विद्रोह। लगता था
निरन्तर संघर्ष करती वह एकदम ही चुक गयी है।
पहली बार प्रवीर ने उन्हें देखा तब भी
कुन्नी की माँ ऐसी ही चुपचाप थीं और आज भी।
कहीं-न-कहीं उसने भारी आघात पाया है, यह
प्रवीर से छिपा न रहा।
"लीजिए, लौरीन आण्टी आ गयीं।" मुन्नी स्वागत
के लिए बढ़ गयी—'मैंने कहा था ना, रंजन काका
की गाड़ी में आ रही होंगी।"
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