नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
अम्मा रुआंसी हो गयीं—“आज उन्होंने विवाह की
तिथि बतलायी तो टालमटून मत करना। अपने ही
मामा को देख ले, शुभ कार्य जहाँ एक बार टला
तो टला।''
प्रवीर के मामा का दुखद दृष्टान्त उसे पहले
भी कई बार दिया जा चुका था।
पन्द्रह वर्ष पूर्व उनकी न जाने किस कुघड़ी
में हुई सगाई उसी 'स्टेज' में ठप्प होकर रह
गयी थी। मामा ने बड़े जोश में आकर पहली तिथि
स्वयं ही टला दी थी।
'पहाड़ में कोर्टशिप नाम की कोई चीज़ ही
नहीं है,' उन्होंने दोनों भानजों को
प्रभावित कर दिया था, चट मँगनी और पट ब्याह,
हमें यह सब पसन्द नहीं। मामा एक लम्बे अरसे
तक विदेश में रहकर लौटे थे और विदेशियों की
ही भाँति विवाह के पूर्व कुछ समय तक
रोमाण्टिक गोताखोरी का आनन्द उठाना चाहते
थे, किन्तु रसवन्ती गोताखोरी की पहली ही
डुबकी में बेचारे ऐसे डूबे कि फिर ऊपर नहीं
आ पाये। पहले वर्ष प्रवीर के नाना की मृत्यु
ने विवाहतिथि टाल दी। दूसरे वर्ष स्वयं मामा
को ऐसा विषम सन्निपात ज्वर हुआ कि चाँद गंजी
हो गयी। वैसी गंजी सूरत पर सेहरा कैसे बँधता
! तीसरे वर्ष मामा किसी सरकारी पुल निर्माण
योजना के प्रमुख इंजीनियर नियुक्त हुए थे।
उस भीमकाय सेतु की नींव उनके कुछ बेईमान
ठेकेदार दीमक बने न जाने कब से चाट रहे थे,
भरभराकर लोहे का एक पूरा खम्भा मामा के सिर
पर
आ गिरा। प्राण बच गये, किन्तु अर्धांग चला
गया। पक्षाघात से पंगु बने मामा फिर
चिरकुमार ही बने रहे। कौमार्य कवचधारिणी
अधूरी मामी सीमावर्ती क्षेत्र के किसी
मोबाइल स्कूल की प्रधानाध्यापिका बन एकदम
मर्दानी बन चुकी थीं। पिछले वर्ष अपनी स्कूल
गाइड की टोली लेकर कलकत्ता आयीं, तो प्रवीर
पहले उन्हें पहचान ही नहीं पाया। प्रकृति से
जूझकर क्या कोई उसे पराजित कर पाया है ? जो
जितने अमानवीय धैर्य से उससे भिड़ता है, उसे
उतना ही कठोर दण्ड देकर प्रकृति पराजित कर
देती है। यह वही मामी थी जिन्हें बीसियो
पहाड़ी लड़कियो को नापसन्द कर मामा ने पसन्द
किया था। दुबली, छरहरी पहाड़ी किशोरी, जिसने
कभी पहाड़ की परिधि नहीं लाँघी। इसी से
गालों पर थी स्वाभाविक लालिमा, चेहरे पर
निर्दोष शिशु की लनाई। अब वही गोरा रंग
स्याह पड़ गया था, मर्दाने ट्वीड का लम्बा
कोट, क्रेपसोल के मर्दाने जूते और आकारहीन
शरीर पर ऊँची बँधी साड़ी, ठुड्डी पर एक नये
टापू-से उग आये मस्से पर दाढ़ी के गुच्छे का
गुच्छा झूल आया था, जिसे वे अभ्यासवश
बार-बार मरोड़ती रहती थीं।
अम्मा ने सोच में डूबे प्रवीर की पीठ पर हाथ
धरा तो वह चौंक पड़ा। पता नहीं, क्या-क्या
ऊटपटाँग बातें दिमाग़ में आने लगी थीं, क्या
कुन्नी भी कभी वैसी ही हो जाएगी ? "मैं चलती
हूँ लल्ला। आगा-पीछा सब सोच के चलना होगा,
इसी से सोचा एकान्त में तुझे पकड़कर मन की
बात कह ही आऊँ।" अम्मा उसे सीख देकर चली
गयीं। वैसे यदि सीख न भी मिलती, तो वह स्वयं
ही पाण्डेजी की निर्धारित तिथि स्वीकार करने
का निश्चय कर चुका था। कल रात की घटना उसे
सहमा गयी
थी। अब वह जमाना नहीं रहा, जब कुँआरी
लड़कियाँ समाज के नर-व्याघ्रों के भय से
सहमकर स्वयं ही अवलम्ब रूप में पति के
स्कन्ध के लिए मनौतियाँ माँगती थीं, अब तो
मर्यादाशील किसी भी पुरुष को शृंगारिका
आधुनिका अपने सुवर्ण मृगचर्म से छल राकती
थी।
वह बरामदे में गया, तो कली के कमरे में बन्द
बड़ा-सा ताला लटक रहा था। वह निशाचरी क्या
दिन-भर इधर-उधर डोलकर भी रात को देर तक जगी
रहती थी।
पाण्डेजी के यहाँ चाय का निमन्त्रण निभाने
जाना है, यह माया, अम्मा और स्वयं बाबूजी कई
बार आकर उसे याद दिला गये। वहाँ जाने में
प्रवीर को बहुत संकोच हो रहा था। अपने मुँह
से वह भला दामोदर के 'सस्पेंशन' का अप्रिय
प्रसंग छेड़ेगा ही कैसे ? कहीं पाण्डेजी यह
न समझने लगे कि दामाद कलाई पकड़ते ही पोचा
पकड़ने लगा है। उनसे उसका परिचय था ही कितने
दिनों का ! पर वहाँ पहुँचते ही उसके भय की
बेड़ियाँ स्वयं कट गयीं। कुन्नी की बड़ी बहन
मन्नी पति सहित पहाड से आ गयी थी। गोरी,
लम्बी, बड़ी-बड़ी आँखोंवाली। इस मुखरा साली
ने वातावरण को एकदम स्वाभाविक बनाकर स्वयं
ही अप्रिय प्रसंग छेड़ दिया। वह बड़े बाप की
बेटी ही नहीं थी, लखपति श्वसुर की पुत्रवधू
भी थी। इसी से श्वसुरगृह के ऐश्वर्य ने
लावण्य को स्वाभाविक गरिमा प्रदान कर जिह्वा
को प्रगल्भा बना दिया था। वह बात-बात पर
मन्त्रीजी को बड़ी आत्मीयता से छेड़ती ऐसे
गुदगुदा रही थी जैसे उनकी सगी मुँहलगी भतीजी
हो। सोफ़े के कोने में बैठा मुन्नी का
साँवला गोलमटोल पति मुखरा पत्नी के रौबदार
व्यक्तित्व के आँचल में ही दुबककर रह गया
था।
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