नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
ऐसी विचित्र लड़की के लिए कहा ही क्या जा
सकता था। उसने एक बार फिर कुरसी पर सो रही
कली को देखा, उसकी गहरी साँसें कमरे की
निस्तब्धता में सर्पिणी की-सी विषैली
फुफकारें छोड़ती उसका दिल दहला उठीं। क्रमशः
उठते-गिरते नन्हें उरोजों को वह न चाहने पर
भी स्पष्ट देख रहा था। एक हाथ कान के नीचे
धर वह कौशलाभिमानिनी कभी एक पैर सिकोड़कर
करवट बदलती, कभी दोनों टाँगें कुरसी की
निर्जीव फैली बाँहों पर उठा लेती। ऐसे हाथ
पर हाथ धरकर बैठने से बात बनेगी नहीं।
प्रवीर चुपचाप उठकर बाहर चला गया। उसके
सान्निध्य से बरामदे का ठण्डा सीमेण्ट
वांछनीय था। कभी क्रोध से उसका सर्वांग
काँपने लगता, कभी विवशता उसकी गरदन मरोड़कर
रख देती। ऐसे ही उकडूं होकर बैठे-बैठे उसे
नींद आ गयी। पर बैठे-ही-बैठे कहीं देर तक
नींद आती है ? कभी असहाय गरदन इधर-उधर
ढुलकती, कभी हाथ की दोनों कुहनियाँ बुरी तरह
दुखने लगतीं और वह अचकचाकर जग जाता।
बैठे-ही-बैठे उसने रात काट दी। हाथ की घड़ी
को बड़े यत्न से घुमा-फिराकर समय देखा, तो
चार बज चुके थे।
नित्य पाँच बजे अम्माँ के शंख घोष का एलार्म
घर-भर को जगा देता था। अब उसे उठाकर कमरे
में न पटकने पर अनर्थ की सम्भावना थी। वह
उठा, थके, मुड़े-तुड़े हाथ-पैर सीधे किये और
कमरे में गया तो कुरसी ख़ाली थी। चलो, बला
टली। प्रवीर को लगा उसकी छाती पर पड़ी
रात-भर भारी शिला स्वयं हट गयी है। अन्त तक
विधाता ने उसे सुमति दे ही दी। अब चिटखनी
चढ़ाकर वह देर तक नींद पूरी करेगा। चित्त
ऐसा हलका हो गया कि वह धीमे से सीटी बजाता
चिटखनी चढ़ाकर पलंग की ओर लपका। अचानक कण्ठ
की सीटी कण्ठ ही में सूखकर रह गयी। बेढंगी
कुरसी से सविधानसार स्थान-परिवर्तन कर
दस्यकन्या उसी की चादर सिर से पैर तक लपेटे
उसके खाली पलंग पर सो रही थी। लगता था देर
तक गठरी बन कुरसी पर सोने के पश्चात् उसके
अपूर्व प्रकम्पित पर्यंक पर सोने में उसकी
सुडौल काया अपनी पूरी लम्बाई में तन गयी थी।
ऐसा किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर खड़े रहने का अब
समय नहीं था। अम्मा किसी भी पल चाय का गिलास
लेकर द्वार पर खड़ी हो सकती थीं। प्रवीर ने
बिना कुछ कहे निद्रामग्ना कली के पैर का
अंगूठा पकड़कर ज़ोर से वैसा ही हिला दिया
जैसे कली ने कुछ देर पूर्व हिलाकर उसे जगाया
था।
वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। खिड़की से अन्धकार
मिश्रित साँवला उजाला झाँकने
लगा था। नीले ड्रेसिंग गाउन में चमकती त्वचा
का पीलापन देखकर प्रवीर को पहले दया आ गयी।
कितनी बीमार, डरी-सहमी लग रही थी वह ! पर
दूसरे ही क्षण लज्जास्पद परिस्थिति की
वास्तविकता ने उसकी विवेकपूर्ण चेतना लौटा
दी। उसने पलँग पर बैठी, अर्ध-उन्मीलित आँखों
से उसे टुकुर-टुकुर निहारती विस्मित-भावा
कली को बड़ी रुखाई से कन्धा पकड़कर नीचे
उतार दिया। वह पहले बुत बनी खड़ी रही। फिर
सोमनम्बुलिस्ट-सी चुपचाप चिटखनी खोलकर बाहर
निकल गयी तो प्रवीर ने लपककर चिटखनी बन्द कर
दी। कुछ देर तक वह द्वार से सटकर ही खड़ा
रहा। चिटखनी बन्द थो, फिर भी उसे भय हो रहा
था। कहीं जादूगर हुड्नी की बाज़ीगरी से वह
चिटखनी खोल फिर उसी की पलंग पर पड़ी नज़र न
आये। आज उसे कमरा खोलकर सोने का सबक मिल
चुका था। ऐसी नरभक्षिणी बग़ल के कमरे में थी
और उसे अपने पुष्ट शरीर को आँखों-ही-आँखों
में निगलते वह कई बार देख चुका था, फिर भी
द्वार खोलकर उसी ने तो 'आ बैल मुझे मार' कहा
था। फिर दोष भला किसका था ? एक ही रात की
बात थी, कल वह अम्मा के बग़ल के कमरे में
जाकर सो रहेगा। कह देगा रात-भर सड़क चलती
रहती है, उसे नींद नहीं आती। फिर रात-भर
निकलते जुलूसों का हुल्लड़ अम्मा-बाबूजी भी
तो सुनते रहते थे। कभी 'कांग्रेसेर
धप्पाबाजी, चलबे ना चलबे ना, कभी 'संयुक्त
दल होलो विफल'। ठीक था, यही कह देगा। काबुल
जाने पर वह क्या वहाँ उड़कर आएगी ? यदि आ भी
गयी तो वह वहाँ उससे निपट लेगा। उस-जैसी
बीसियों गोष्ठीप्रिया अभिसारिकाओं को वह
अपने संयम से पटखनी दे सकता था। उसकी जिस
तकिया पर वह हाथ धरकर सोयी थी उस पर पतली
बाँह का 'कास्ट'-सा बन गया था। क्या सेण्ट
की शीशी ही उड़ेल गयी थी छोकरी ? वही परिचित
'परफ्यम' का कस्तरी भभका उसे विचलित कर उठा।
उसने थपथपाकर तकिये की सलवट ठीक की और
बिस्तर ढक दिया। उजाला हो गया था, अम्मा के
शंख का एलार्म बज चुका था। वह बत्ती जलाकर
बासी अखबार ही पढ़ने की विफल चेष्टा कर रहा
था कि चिटखनी स्वयं ही खल गयी। अम्मा चाय का
गिलास लिये खड़ी थीं, पन्द्रह मिनट पहले यदि
कहीं ऐसे ही आकर द्वार पर खड़ी हो जाती !
चाय का गिलास उसे थमाकर अम्मा उसी के पलंग
पर बैठ गयीं।
“एक बात तुझसे कहने आयी हूँ, लल्ला ! आज तू
वहाँ जाएगा। तेरे बाबूजी तो ऐसे संकोची हैं
कि एक बार तू काबुल गया तो फिर मुँह खोलकर
पाण्डेजी से कुछ भी नहीं कह पाएँगे। तूने कल
का नाटक तो देख ही लिया, जैसे भी हो, दामोदर
को नौकरी पर लगाना है। जब तक खाली बैठेंगे,
यही सब उपद्रव खड़े करते रहेंगे। आख़िर
दामाद हैं। घर से बाहर ठेल भी नहीं सकती। यह
तो अच्छा है, परदेश में हैं। यहाँ सबसे यही
कह दिया है कि लम्बी छुट्टी लेकर जया का
इलाज कराने आये हैं। पर लम्बी छुट्टी की हम
कब तक कैफ़ियत देते फिरेंगे ? और एक बात है
बेटा!"
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