नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
पन्ना का हेडकार्टर तब पटना में था। नेपाल के किसी राणा ने उसकी माँ के लिए एक
दर्शनीय कोठी बनवा दी थी, बड़ा-सा अहाता कटहल, आम और जामुन के पेड़ों से भरा था,
एक ओर फ़रूइखाबादी जामुन, मलीहाबाद के आम और मेदिनीपुर से काज के पेड़ ला-लाकर
लगाये गये थे, दूसरी ओर फूलों से देखने दूर-दूर से पन्ना की माँ के विदेशी
अतिथि दिन-रात आते रहे।
पन्ना की माँ का नाम था मुनीर। देखने में असाधारण रूपवती न होने पर भी उस
रोबदार पेशेवर महिला का, सर्वोच्च विदेशी समाज में उठना-बैठना लगा रहता।
उसके मांसल कण्ठ की त्रुटिहीन अंग्रेज़ी सुनकर बड़े-बड़े भारतीय अफ़सर दंग रह जाते।
जिनके हाथ में देश की सत्ता थी, उस ललमुँही जाति को जीतने से पहले उनकी भाषा
सीखनी होगी, यह मुनीर भली-भाँति समझती थी, दो-दो गवर्नेस एक साथ रखकर उसने उनकी
भाषा की सरस्वती स्वयं ही अपनी जिह्वा पर खोदकर रख ली। विदेशी समाज का कोई भी
जलसा क्यों न हो, मॉर्डन पार्टी या लाट साहब की पिगस्टिकिंग पार्टी का खेमा,
पोलो-प्रदर्शन या लाट की मेम का बाजार, गहनों से झलमलाती, पान के बीड़े से ऊँचे
कपोलों को कुछ और ऊँचा उठाये, मुनीर मेजवान की कुरसी से सटी बैठी रहती। उर्दू
हिन्दी और अँगरजॉ-तीनों भाषाओं पर उसका समान रूप से अधिकार था। एक बार उसके
विदेशी प्रेमी डिकी ने, उसे हँसी-हँसी में 'बेगम समरू' कहकर पुकारा तो वह भड़क
उठी थी-''इट इज नॉट ए कम्पलीमेण्ट डिकी, ''उसने कहा था, ''क्या तुम नहीं जानते
बेगम समरू देखने में कैसी थी? एकदम साधारण, और क्या तुम चाहते हो कि बेगम समरू
की ही भाँति मैं भी अपने विदेशी प्रेमियों को ठोकर मारती फिरूँ?'' डिकी दंग रह
गया था, इतिहास, भूगोल, आयुर्वेद, ज्योतिष सबकुछ पढ़ने के लिए समय कहीं से मिल
जाता था उसे! तराई में कहीं बड़ा गेम मिल सकता है, किस झील की मुर्गाबियाँ और
बत्तखें प्रसिद्ध हैं, सबकुछ जानती थी वह। यही नहीं, उसकी बनायी काँकटेल के
एक-एक अमृत-स्वरूपी घूँट के लिए कितने ही समृद्ध विदेशी अहंवादी घुटने ज़मीन पर
टेककर रह जाते। छोटे-से क़द की गुदगुदे हाथ-पैर वाली वह गुड़िया-सी प्रौढ़ा, निकट
आने पर भी पन्द्रह वर्ष की किशोरी-सी दीखती। मुनीर की तीन पुत्रियाँ थी, बड़ी
माणिक, जिसकी छोटी नाक, छोटी आंखें और सामान्य-सी बात पर होंठों पर थिरकने वाली
हँसी की एक-एक रेखा, अपने राजवंशी पिता राणा से मिलती थी, बाप की दुलारी और माँ
की मुँहलगी माणिक स्वभाव से ही कूर, जिद्दी और अहंकारी थी।
दूसरी थी हीरा-नाम के विपरीत रूप प्रदान कर विधाता ने उससे निश्चय ही एक कूर
परिहास किया था। माँ ने उसके जन्मते ही घृणा से मुँह फेर लिया था। छि-छि, रंग
था कि एकदम आबनूस, घुँघराले छोटे-छोटे बाल, चिपटी फैली नाक और मोटे लटके होंठ।
उसी को लेकर राणा और मुनीर के सम्बन्ध सदा के लिए टूट गये थे, राणा
अपनी तीन-तीन रूठी रानियों को मनाने स्वदेश चला गया था।
''यह लड़की मेरी नहीं है, ''वह गरजगरजकर चीखता रहा था-''आखिर उतर आयी न अपनी जात
पर! क्या मैं इतना मूर्ख हूं जो यह भी न समझ पाऊँ कि इसका बाप कौन है?''
मुनीर एक शब्द भी नहीं कह सकी, कहती भी क्या? लाट साहब के बेटी-दामाद उसके
अतिथि होकर आये, तो उनके साथ आया था उनका रावण-सी देह और महिषासुर के-से
चेहरेवाला भयानक कशा मृत, रौबी। ऐसा डरावना चेहरा कि अँधेरे में कोई देख ले, तो
भय से मूर्च्छित होकर गिर पड़े। पर आहा, क्या गला था उसका! अपने भारी जंसल कण्ठ
से उसने 'वीप नो मोर माई लेडी, ओह वीप नो मोर टुडे!'' गाया तो मुनीर सिसकियाँ
लेकर रोने लगी। यही गाना गाता था उसका प्रथम विदेशी प्रेमी-नीली आँखों और
सुनहले बालों से मण्डित सुभग व्यक्तित्व का स्वामी रान्धनी। अठारह वर्ष की
सुन्दरी मुनीर ने इसके उमड़ते प्रेमोदधि में पहली डुबकी इसी विदेशी के साहचर्य
में ली थी। कैसे उसे अपने साथ विदेश ले जाएगा, कैसे विदेशी मेमें उसके सौन्दर्य
और सौभाग्य को देख जल-भुनकर मर जाएँगी-सुनती मुनीर आनन्द-विभोर हो उठती। पर एक
दिन उसके कल्पना के युटोपिया को स्वयं एन्थनी ही तोड़-फोड़कर किसी बैरन की इकलौती
पुत्री को ब्याहने विदेश चला गया। जीवन की उसी प्रवेशिका में अनुत्तीर्ण हुई थी
मुनीर, इसी असफलता ने उसे उसके पेशे का प्रथम अनिवार्य पाठ पढ़ाया। उसके पेशे
में लज्जा, क्षोम एवं पश्चात्ताप के लिए कोई स्थान होने का प्रश्न ही नहीं उठ
सकता था। धोखा, फ़रेब और निर्लज्ज आचरण-तीनों ही उसे चोटी पर पहुँचा सकते थे और
वह पलक झपकाते ही एक दिन चोटी पर पहुँच गयी।
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