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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


हब्शिन-सी हीरा तीन वर्ष की भी नहीं हुई थी कि मुनीर ने बनारस के हरिश्चन्द्र घाट के पास, अपने विदेशी मित्र के सजे-धजे बजरे में तीसरी पुत्री को जन्म दिया। अपने नवीन विदेशी प्रेमी के साथ वह जिद कर काशी के प्रसिद्ध बुढ़वा मंगल के मेले में चली आयी थी। तीसरी पुत्री का गौर वर्ण, नीली आँखें और सुन्दर सुनहले केश देखकर वह अपनी बदसूरत मँझली पुत्री के जन्म की सारी व्यथा भूलकर रह गयी थी। इससे सुन्दर तोहफ़ा उसके पेशे को और मिल ही क्या सकता था? एक तो पुत्री, उस पर सुन्दरी! एक इसी सौन्दर्य की लाठी टेकती वह ऐश-आराम से अब अपना बुढ़ापा काट सकती थी।
''इसे सब देखते ही जान लेंगे कि इसका पिता कौन है। ध्यान रखना मुनीर, कहीं लाट साहब की नजर इस पर न पड़े, मेरी नौकरी चली जाएगी, समझी?'' दुष्टता से मुस्कराकर रौबर्टसन ने मुनीर की गुदगुदी हथेली चूम ली थी।
लाट साहब का वह मनचला ए. डी. सी. अपने मोहक व्यक्तित्व और रंगीन तबीयत के लिए यथेष्ट कुख्याति अर्जित कर चुका था। किन्तु ऐसा उदार और
प्रेमकला में पटु प्रेमी मुनीर को आज तक नहीं मिला था, इसी से वह उसे सहज में छोड़ना भी नहीं चाहती थी। रौबर्टसन केवल एक उदार प्रेमी ही नहीं, आवश्यकता से अधिक उदार स्नेहालु पिता भी था। जितनी बार वह आता, उतनी ही बार पुत्री के लिए उसकी छमार देह से भी भारी-भारी गहने गढ़वा लाता। पर पिता का यह लाड़ पन्ना को चार ही महीने मिल पाया। उस सुदर्शन खलकामी विदेशी की बाँहों में केवल यही सन्तान नहीं खेली थी। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, विभिन्न दिशाओं में उसकी नीली आंखों और सुनहले बालों के कई संस्करणों की सृटि हो चुकी थी। धीरे-धीरे उसकी दुष्कीर्ति की कहानियाँ एक दिन उसके प्रभु के कानों तक पहुँच गयी। अनुशासन-प्रिय कठोरहदय लाट साहब ने उसे कुछ ही घण्टों में भारत छोड़कर चले जाने का आदेश सुनाया, और एक बार फिर मुनीर की तीसरी पुत्री भी समृद्ध पिता के रहते ही पितृहीन हो गयी।

रंग, रूप और स्वभाव में सर्वथा विभिन्न तीनजीन पुत्रियों को पालने का भार मुनीर के कंधों पर पड़ा तो वह तनिक भी विचलित नहीं हुई। उनके लालन-पालन में वह रियासती रानी रजवाड़ों की परम्परा निभाने लगी।'' ये तीनों, मेरे तीन आई. सी. एस. बेटे हैं,'' वह बड़े गर्व से अपने नवीन प्रेमी ब्रिटिश रेजिडेण्ट से कहती। ''यह ठीक है कि हीरा सुन्दरी नहीं है, पर काले रंग पर तुम विदेशी कैसे मर-मिटते हो, यह मुझे पता है। एक दिन इसका यही काला रंग इसे तुम्हारे समाज में हीरे के मोल बेचेगा।'' स्विस गवर्नेस, मिसेज़ विंसेण्ट ने तीनों को अँगरेजी अदब-क़ायदों की पॉलिस से ऐसे चमकाकर रख दिया था कि बड़े-चड़े तान्तुकेदारों के यहाँ विदेश अतिथियों के सम्मान में कोई भी जलसा होता; तो मुनीर की तीनों पुत्रियों को विशेषरूप से आमन्त्रित किया जाता। पर मुनीर जान-बूझकर ही तीनों को घर पर ही छोड़, कुछ-न-कुछ बहाना बना देती। जिन मुजरों में मुनीर के आते ही सैकड़ों मुग्ध दृष्टियों के नुकीले बाण उसे बींधने लगते, वहाँ क्या यह सम्भावना सदा नहीं बनी रहेगी कि एक-आध बाण उसकी निर्दोष किशोर पुत्रियों को भी असमय ही बांध डाले! फिर तीन-तीन समझदार पुत्रियों के सम्मुख वह कभी भी अपना स्वाभाविक अभिनय नहीं कर पाती थी।

सोलह वर्ष की ही उसकी बड़ी पुत्री माणिक की नेपाली आँखों में संसार की कुटिल चालों की स्पट वर्णाक्षरी, छापे के सुघड़ अक्षरों-सी ही स्पष्ट हो उठी थी। पुरुष को किस बंकिम कटाक्ष के मैग्नेट से खींचा जाता है; कैसे एक बार रेशमी पलकों को उठा, बिजली की गति से झपककर, बन्दी बनाया जा सकता है; फिर एक ही उदासीन दृष्टि की बिजली गिला सदा के लिए तड़पते छोड़ा जा सकता है; किस मृत्युंजयी आमन्त्रणपूर्ण दृष्टि से, कैसे कठोर-से-कठोर हृदय पुरुष के कठिन व्यक्तित्व पर अपनी
सील-मुहर लगायी जाती है, यह सब-कुछ माणिक ने सीख लिया था। यह कोई रटा-रटाया पाठ नहीं, स्वयं उस विलक्षण बालिका की ही जन्मजात प्रतिभा है, यह मुनीर समझ गयी थी। उसी स्वयं अपने दिन याद आते। प्राणपण से की गयी चेष्टा के फलस्वरूप ही वह आज इस सिंहासन पर बैठ सकी थी। आत्मग्लानि से तड़प-घुटकर कितनी विवशता से वह चीनी वर्णाक्षरी-सी दुरूह, प्रेम की यह बारहखड़ी सीख पायी थी। चाबुक-हण्टर की मार के साथ पढ़ाये गये, अपनी अभिशप्त जीवन-पुस्तिका के एक-एक परिच्छेद का स्मरण करते ही वह सिहर उठती। और उसी के रक्तमांस से बनी उसकी सुन्दरी पुत्री, जिसे अभी तक वह सबके सामने टब में नंगी नहलाती, उसकी बाल-क्रीड़ाओं से सबका मन मोह लेती थी, आज अचानक कैशोर्य की सीढ़ी पर बिना पैर धरे ही, यौवन-शिखर पर खड़ी मुसकरा रही थी।

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