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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


दो

पन्ना अपलक दृटि से बच्ची को देख रही थी। कैसे सुन्दर घने बाल थे और कैसा बड़ी-बड़ी आँखें। लगता था गर्भ से ही अंजन आँजकर आयी है। बड़ी दी कितनी प्रसन्न होंगी इसे देखकर! एक बार उनकी बंगाली दासी खुदू, अपनी पोती को लेकर आयी थी तो पूरी पीली कोठी की सत्रह मातृहीन सुन्दरियों का मातृत्व तड़प उठा था। कोई उसे उठाकर पागलों की भाँति चूमती, कोई उसके बालों के छल्लों में कलिंग पिन्स लगाती-चीनी सुन्दरी ली वांग ने तो उसके लिए दो रेशमी छब्बे भी सिल दिये थे और बड़ी दी उसे बराल में लिटाकर लिहाफ़ ओढ़कर सो गयी थीं। कितने ही रेशमी झबले, सोने के कड़े, लॉकेट, नन्हे गद्दे, दूध गिने की शीशी और झुनझुने लेकर खुदू की पोती घर लौटी थी! उस प्रत्यागमन के मातम में उस दिन पीली कोठी के द्वार प्रत्येक अतिथि के लिए बन्द रहे थे।
''लाओ रोज़ी, मैं इसे लेकर आज ही चली जाऊँगी,'' एक ही पल में निश्चय कर पन्ना ने डॉ. पैद्रिक की गोदी से बच्ची को लेकर एक बार फिर छाती से लगा लिया।
कृतज्ञता से विह्वल, डॉ. पैद्रिक के कण्ठ से एक शब्द भी नहीं फूटा, ऐसा आनन्दानुभूति उन्हें पहले कभी नहीं हुई थी, तब भी नहीं, जब रोग से नुची-खुची बीभत्स बन गयी रोगिणियाँ, नवीन अंगों की नयी बनावट से स्वयं ही आश्चर्य-स्तब्ध हो, कृतज्ञता से उस जीवनदात्री के चरणों में लोट-पोट हो गयी थीं। हाथ की बरसात। कंधे पर डाले, डॉक्टर चुपचाप बाहर निकल आयीं। इस स्वर्गिक क्षण को वे अब कुछ कहकर नए नहीं होने देगी। उसी सन्ध्या को वे स्वयं पन्ना को विदा दे आयी थीं। जितनी ही जल्दी पन्ना जा सके, उतना ही श्रेयस्कर था। असदुल्ला को वे जानती थीं लुक-छिपकर ताक-झाँक करने वाला वह पठान उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाता था। आश्रम से तो वह कब का जा चुका था, पर वह कब, कहीं और कैसे छिपा बैठा है, कोई नहीं जान सकता था।

पन्ना ने अल्मोड़ा का पता देकर रुपये मँगवाये हैं यह सब माणिक सुन चुकी थी, पर उस जिद्दी छोकरी को वह अभी भी क्षमा नहीं कर पायी थी। उसे लेकर राय काका के सम्मुख ललित नतमुख खड़ी रह गयी थी वह! उनके एक सामान्य-से अनुरोध की भी वह रक्षा नहीं कर पायी थी। ठीक है, अब भुगते अपनी करनी!

सोच रही होगी बड़ी दी भागती-भागती मनाने आएँगी, रानी रूठेगी अपना सोहाग लेगी! आखिर कितने दिन चलेगा सूद का रुपया, एक-न-एक दिन उसे बड़ी दी की ही शरण में लौटकर आना होगा। पन्ना के अकस्मात् रूठकर चले जाने से माणिक की कोई क्षति न हुई हो, ऐसा भी नहीं था, बढ़ती वयस के चिह्न, पन्ना के अपूर्व चेहरे की कान्ति को तनिक भी मलिन नहीं कर सके थे। जहाँ माणिक के बालों की सन्दिग्धतापूर्ण कालिमा, देखने वाले को कुछ ही देर के लिए छल पाती, वहाँ पन्ना के घने काले बालों में किसी प्रकार के छल-कपट की मरीचिका नहीं थी, न उस चिकने चेहरे पर कोई झुर्री ही आयी थी, स्वच्छ दन्त-पंक्ति में पान दोख्ते का एक धब्बा भी पन्ना ने नहीं लगने दिया था, दिन-रात कत्थक नृत्य की कठोर घुरनियों ने, छिपछिपि गठन को इंच-भर भी इधर-उधर नहीं होने दिया था। शान्त चेहरे पर कलुषित पेशे के धुँधले हस्ताक्षर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलते थे। जैसे किसी सुखी गृहस्थी की जीवित विज्ञापन-सी कोई लक्ष्मीस्वरूपा गृहिणी ही उनके सम्मुख बैठी हो, ऐसा ही उसके अनन्य उपासकों को सर्वदा बोध होता। किसको विदेशी तीव्र मादक सुगन्ध रुचती हे, किस संयमी प्रेमी को मोतियों की हल्की गमक पसन्द है, कौन आमिषभोजी है, किसे वैष्णव निरामिष भोजन पसन्द है, कौन उसे भड़कीली साड़ी पर दमकते-चमकते पेशेवाज़ में देखना चाहता है, और कौन उसकी लाल पाड़ की गरद की साड़ी-मण्डिता भव्य मूर्ति का उपासक है, सब कुछ उसे स्मरण रहता! इसी से उसके प्रेमियों को सर्वदा एक लम्बे क्यू में खड़े रहना पड़ता। एक लाल फ़ेल्ट से बँधी डायरी में, उसके सेक्रेटरी दुलाल बाबू सबके एपाइण्टमेण्ट की तिथि दर्ज करते जाते। केवल एक ही ग्राहक के लिए इस डायरी में लिखी तिथि का कोई महत्त्व नहीं था। कुमिल्ला के प्रख्यात जमींदार विद्युत रंजन मजूमदार, जब चाहें तब पन्ना की पूर्व-निर्धारित तिथियों में उलट-फेर करा सकते थे। पन्ना का उनसे प्रथम परिचय राजभवन के एक जलसे में हुआ था। पन्ना के सुमधुर कण्ठ, अपूर्व सौन्दर्य और बंकिम कटाक्षों की चर्चा उन दिनों सम्पूर्ण बंगाल में पैनल चुकी थी। सम्मान्त, कुलीन ब्राह्म गृहों में भी, ब्राह्मोत्सव में उसे विशेष सम्मान सहित आमन्त्रित किया जाता।

'ओ अनाथेर नाथ, ओ अगतिर गति
ओ अकूलेर कूल ओ पतितेर पति'

माघोत्सव में भावविभोर होकर पन्ना ने गाया, तो सुनने वालों की आंखों में आँसू छलक आये थे, क्या गुरुदेव ने यह पंक्ति उसी के लिए लिखी थी? यह उस पतिता के कण्ठ का जादू था या पंक्तियों का?
शायद अनुपम कण्ठ-स्वर पंक्तियों से मेल खाकर एकाकार हो गया था।

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