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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


"जा तो सही घर, अकेले कमरे में आज श्मशान-प्रवेश का मज़ा चखा देंगी।"
“सहमकर, मैं पॉल से एक गोली माँग लायी, कहता था, मुख में धरते ही एकदम वैकुण्ठ-दर्शन !''

''बाप रे बाप ! मैं क्या जानती थी कि ऐसा घातक पोटेशियम साइनाइड है। चाबी हाथ में धरकर गोली खायी कि कमरा खोलकर सो जाऊँगी, पर वहाँ तो सहस्रों
यमदूत खींचकर साथ ले गये। बेंच पर लुढ़की थी बस इतना ही याद रहा। यह अंगूठी न मिलती, तो शायद जान भी न पाती कि कौन महा-मानव बिस्तर पर सुला गया है। पर आज गोली नहीं है, तब से कमरे में ऐसी ही बैठी हूँ। देखो छूकर..." उसने अपनी बर्फ़-सी ठण्डी हथेलियों में प्रवीर के हाथ जकड़ लिये।

"अब मैं नहीं जाऊँगी। पहले सोचा, माया को जगाकर उसके पास जाऊँ, पर वहाँ वह क्या अकेली होगी ? और जया ? बाप रे बाप, उस कमरे से तो मैं श्मशान जाना पसन्द करूँगी। अम्मा के कमरे में बाबूजी होंगे। पूरे घर में एक तुम्हीं ऐसे हो, जिसके पास कुछ दिनों तक आ सकती हूँ, तुम आराम से सो जाओ—गुडनाइट एण्ड स्वीट ड्रीम्स।"

वह दुष्टता से हँसी और पतली रस्सी पर साइकिल चलाती किसी नटिनी-सी सर्कस सुन्दरी की लचीली छलाँग में पतली टाँगें साधती, लम्बी कुरसी की फैली बाँहों पर पैर रखती, उसकी गद्दी में पालतू बिल्ली की-सी अंग समेटकर सो गयी।

प्रवीर हतबुद्धि-सा बैठा ही रह गया।

कैसी लड़की थी यह ! निश्चय ही वह नॉर्मल नहीं थी। आधी रात को उसके कमरे में आकर वह कैसी अधिकारपूर्ण मुद्रा में सो रही थी, जैसे वह ही उसकी पत्नी
हो।

नित्य पूजा करके अम्मा उसके कमरे में चाय का गिलास लाकर धर जाती थीं। उस कल्पनामात्र से ही वह पसीना-पसीना हो गया। क्या उस छोकरी को सचमुच इतनी जल्दी ही नींद आ गयी थी या उसे चिढ़ाने, वह जान-बूझकर ही गहरी साँसें छोड़ रही थी। वर्षों पुरानी उस आराम-कुरसी का बेंत दामोदर ने दोनों पैर ऊपर धर गँवारू ढंग से बैठकर झूला बना दिया था। एकदम कमोड बन गयी जिस कुरसी पर कोई ढंग से बैठ भी नहीं सकता था, उसी पर वह ऐसे सो रही थी जैसे किसी हैमाक पर सो रही विदेशी मॉडल हो।

उससे कुछ भी कहने के लिए अब प्रवीर को निकट जाकर फुसफुसाना होगा और ऐसा करने में उसे महासंकोच हो रहा था, सोचेगी, वह भी उसके षड्यन्त्र का लोहा मान गया है। और यदि वह साहस कर सशब्द फटकारता है, तो कहीं आसपास के कमरों में सो रहे आत्मीय स्वजन न जाग जायें। सोती लड़की को वह कल रात की ही भाँति सशरीर उठाकर, उसके कमरे में अवश्य पटक सकता था, पर यदि वह बेहया कहीं चीख पड़ी तब ! किसे मुँह दिखा पाएगा फिर ? क्या गृह के उस ज्येष्ठ पुत्र के प्रोज्ज्वल निष्कलंक चरित्र पर उसकी वह चीख़ कोलतार नहीं पोत देगी ? काश ! आज वह नटू के यहाँ ही सो गया होता, पर तब वह क्या स्वप्न में भी सोच सकता था कि यह दुर्दिनाभिसारिका आधी रात को उसके कमरे में ऐसे छप्पर फाड़कर
टपक पड़ेगी ?

यदि कहीं इसी बीच माया आ गयी या स्वयं दामोदर ! क्या वह निर्लज्ज कई बार दिन का कलह भूल-भालकर रात को उसके कमरे से बिना पूछे सिगरेट का पैकेट नहीं ले गया है ? कुरसी पर निश्चेष्ट पड़ी उस निद्रान्ध सुन्दरी को देखकर फिर कौन विश्वास करेगा कि वह निर्दोष है।

कोयले की कोठरी से क्या फिर वह बिना कालिख की लीक लिये निकल पाएगा।

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