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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


डॉक्टर का खिसियाया कण्ठ-स्वर क्षमा-याचना-सी करने लगा, ''यह रोग पैतृक ही होता है, ऐसी धारणा ग़लत है। मेरे पास कई कुछ रोगियों की स्वस्थ सन्तान का पूरा रिकार्ड धरा है।''
पन्ना गहरे सोच में डूबने-उतराने लगी थी। कैसा अनुभूत स्पर्श था! वही गुदगुदी देह, मखमली होंठों की गुदगुदी लगने वाली सिहरन, एक असह्य टीस और फिर स्वर्गिक शान्ति। अचानक छाती में बँधी सब गिल्टियाँ जैसे किसी ने सोख ली थीं। रात-भर की थकान, मानसिक अशान्ति और पन्ना की चुप्पी से डॉक्टर सहसा झुँझला उठीं। कुछ कहती क्यों नहीं यह? कुछ तो कहे, हां या ना।
'''पन्ना,'' वे फिर कहने लगीं, ''मुझे लगता है ईश्वर ने शायद तुम्हें इसी महान् पुण्य का भागी बनाने यहाँ भेजा है। क्यों, है ना?''
पन्ना हँसी। कैसी अपूर्व रहस्यमयी मुस्कान थी उसकी! व्यथा से नीले उन होंठों
के बंकिम खिंचाव में व्यंग्य था या उल्लास? क्या वह मन-ही-मन डॉ. पैद्रिक की हँसी तो नहीं उड़ा रही थी? शायद सोच रही हो, कैसे चतुर होते हैं ये मिशनरी?

पन्ना कहीं उसे गलत न समझ बैठे। डॉ. पैद्रिक का कण्ठ-स्वर फिर गम्भीर हो उठा, ''पन्ना मैं तुमसे झूठ भी बोल सकती थी,'' लैम्प के धुँधले प्रकाश में वह तेजस्वी चेहरा एकदम निर्विकार लग रहा था, ''कह देती कि तुम्हरिा जिस बचा को मैं मरी समझकर गाड़ने ले गयी थी, वही फिर जी उठी। एक ही दिन तो तुम उसे देख पायी थीं, फिर नवजात शिशु प्रायः सब क्या एक ही-से नहीं होते? ऐसे ही घने बाल उसके भी थे, और ऐसी ही आँखें! पर मैं तुमसे झूठ बोलकर डसके प्राणों की भीख माँगने नहीं आयी हूँ। मैं चाहती हूँ तुम इसके जीवन के अभिशाप के साथ ही इसे स्वीकार कर सको। करोगी ना?''
डॉक्टर ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये। पन्ना फिर भी कुछ नहीं बोली।
तीन महीने की छोटी-सी अवधि में ही यह सर्वस्वत्यागिनी विदेशी डॉक्टरनी उसके कितने निकट आ गयी थी। इस अनजान निर्जन जंगल में, जब वह सर्वथा अपरिचित लोगों के बीच एकदम अकेले रहने आयी, तो कितने ही शंकालु नयनबाण उसे निर्ममता से बींधने लगे थे।

कौन हो सकती थी वह? कैसी विचित्र स्वभाव की स्वामिनी थी यह आसन्नप्रसवा सुन्दरी प्रौढ़ा? माँग में सिंदूर, पैरों में बिछुवे, पर न साथ में पति, न सास न कोई नौकर, ऐसी अवस्था में, शहर में न रहकर इस एकान्त बँगले में, क्या दिखा होगा उसे? न कहीं जाती, न उठती-बैठती। कभी-कभी लोग देखते वह रामकृष्ण मिशन की ओर चली जा रही है और कभी कुष्ठाश्रम की ओर। पहले मकान मालिक शाहजी कुछ-कुछ भड़क उठे थे। क्या पता कुष्ठरोगिणी ही हो। आश्रम के रहने पर कहीं रोग का भेद न खुल जाये, शायद इसी से बँगला ले लिया हो। लुक-छुपकर डॉ. पैद्रिक से मन की शंका का समाधान करने शाहजी पहुँचे, तो वे हँसने लेगी थी, ''नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मेरी परिचित है, इसी से मुझसे मिलने आती है।''
जब डॉक्टर ने पन्ना को शाहजी की शंका बतायी तो वह बड़ी देर तक हँसती रही थी। ''कहीं तुमने यह तो नहीं कह दिया उससे कि शरीर का तो नहीं, मन का यही रोग है मुझे!'' ऐसी गलित आत्मा की बीभत्स रोगिणी को जानने पर शायद शाहनी दूसरे ही दिन झाड़ मारकर भगा देगी। रोजी न होती तो कैसे वह रह पाती? प्रायः यही सोचती पन्ना कभी-कभी बौखला उठती। क्या चाहने पर बड़ी दी उसका पता नहीं लगा सकती थीं? तीन महीने में दो बार वह बैंक से अपने सूद का रुपया मँगवा चुकी थी, बैंक मैनेजर लाहिड़ी बाबू को बड़ी दी के रूप के पाचक के बिना एक दिन भी खाना हजम नहीं होता था। क्या उस बैल की-सी आँखों वाले तोंदियल लाहिड़ी ने बड़ी दी को कुछ नहीं बताया होगा।

उस उपालम्भ के 'आसू स्वयं ही पन्ना की आँखों में सूखकर रह जाते।
''हममें से कौन किसकी सगी बहन है पन्ना?'' बड़ी दी ने ठीक ही कहा था। सगी होती तो क्या उसे ऐसे छोड़ देती बड़ी दी? एक दिन सन्ध्या को वह नये बँगले की लक्ष्मण-सेवा पार कर बड़ी चेष्टा से घूमने निकली। भटकती न जाने कैसे डॉ. पैद्रिक के बँगले में पहुंची तो डॉक्टर काठ की कुरसी में बैठी, अपने किसी मरीज के लिए बिना अँगुलियों का दस्ताना बुन रही थीं। यही उनका प्रथम परिचय था। इसके बाद तो वह एक दिन भी घर नहीं रही थी। प्रसवकाल निकट आने पर डॉ. पैद्रिक की उपस्थिति उसके लिए वरदान सिद्ध हुई।
''चालीसवें वर्ष में यह अनहोना प्रथम प्रसव मुझे क्या जीती छोड़ेगा डॉक्टर?'' पन्ना ने कुछ ही दिन पहले हँसकर पूछा था।
डॉ. पैद्रिक ने उसे तो बचा लिया था, पर दूसरे को नहीं बचा पायी थीं। कुछ ही पलों तक देखने पर भी उसका एक-एक नैन-नक्श पन्ना के नेत्र-सम्पुट में बन्द हो गया था। तेजस्वी नरसिंह-से पिता के जैसा चौड़ा माथा, वैसी ही कमान-सी भृकुटि, और वैसी ही तरल आँखें! ठीक से निहार भी नहीं पायी थी कि बिस्तरे पर पड़ी नन्हीं देह असह्य यन्त्रणा से ऐंठने लगी। आँखें टेढ़ी होकर खिंचती-खिंचती सहसा स्थिर होकर रह गयी थी।
नौ महीने तक सही मानसिक और शारीरिक व्यथा का कैसा क्षणिक अन्त होकर रह गया था!

''पन्ना, ''राजा के गम्भीर स्वर ने उसे एक बार फिर चौंका दिया, ''मैं निश्चिन्त होकर अब चलूँ पन्ना?''
''नहीं रोजी," पन्ना ने सोती बच्ची को उठाकर डॉक्टर की ओर बढ़ा दिया, ''अब किसी मोह के बंधन में नहीं पडूँगी। तुम यह मत सोचना रोज़ी कि मैं इसके पैतृक रोग के भय से इसे नहीं ग्रहण कर पा रही हूँ पर तुम मेरी विवशता जानती हो। सिवा बड़ी दी के मेरा और कोई नहीं है। मुझे वहीं लौट जाना होगा, और वहाँ लौटकर एक बार फिर उसी दलदल में डूब जाऊँगी, जहाँ आज तक डूबी थी। अपने साथ-साथ इस निर्दोष बच्ची को भी उसी दलदल में डुबो दूँ? क्या यही चाहती हो तुम?''

''पन्ना, मैं यह सब पहले ही सोच चुकी हूँ। मिशन में रहने पर यह एक-न-एक दिन अपने जन्म के इतिहास को जान लेगी और वह दिन इसके लिए बहुत सुख का नहीं होगा। तुम्हारे पास रहने पर यह तुम्हारी ही पुत्री के रूप में पलेगी। फिर कीचड़ के दलदल में भी कमल उग सकता है पन्ना! जरूरी नहीं है कि तुम इसे अपने ही पास रखो। तुम समर्थ हो। चाहने पर इसे अच्छे-से-अच्छे बोर्डिंग स्कूल में रख सकती
हो। छुट्टियाँ होने पर इसे साथ लेकर मेरे पास भी आ सकती हो पन्ना!''

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