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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


कौन कहेगा यह नाक सुड़कती चम्पा है, तुमने तो इसका हुलिया ही बदल दिया है!''
''तो क्या हो गया बेटी, सुवीर होता तो कितना पहनती-ओढ़ती! अभी उमर ही क्या है!''
''वह ठीक है अम्मा, पर ऐसा भी क्या लाड़! परसों सिनेमा गयी थी, आज फिर किसी सहेली के साथ चल दी।''
''क्या करूँ जया! घर में रहती है तो गुमसुम बैठी न जाने क्या-क्या सोच-सुमिरकर रोती रहती है, बली तो है अभी।''
और फिर उसी बच्ची ने एक दिन सबके कान काट लिये।
सुवीर की मृत्यु के पश्चात् लाल बँगलिया में भजन-कीर्तन आये दिन होता रहता। कभी नवद्वीप से कोई कीर्तन मण्डली आ रही है, कभी विष्णुपुर से। रात-रात भर झाँझ-करताल और मृदंग की संगत के साथ कभी माँ के सुमधुर गाने गूँजते, कभी रामप्रसाद के कीर्तन गाते-गाते स्वयं रेवतीशरण सुधबुध खो बैठते।

वर्षों से बंगाल में रहने से तिवारी परिवार के रहन-सहन, बोलचाल यहाँ तक कि पहनावे में भी सुदीर्घ बंग-प्रवास की स्पष्ट छाप पड़ गयी थी। स्वयं गृहस्वामिनी के व्यक्तित्व में कुमाऊँ एवं बंगाल की संस्कृति का अद्भुत सम्मिश्रण था। वह गले में पहाड़ी मंगलसूत्र पहनती, पर हाथ की चूड़ियों के बीच रहती शंख की चूड़ी और 'नोआ'। पैरों में बिछुए रहते पर माँग में रहती प्रगाढ़ सिहर की रेखा। सीधे पल्ले की साड़ी के आँचल में झूलता बंगाल की गिन्नी का-सा चाबी का गुच्छा। हिन्दी बोलती तो लगता कोई बंगाली महिला हिन्दी बोल रही है। पुत्र-पुत्रियों के काम भी ठेठ बंगाली थे, पर रूप-रंग था निरा पहाड़ी। दोनों पुत्रियाँ बंगाल में ही जन्मीं और वहीं की जलवायु में पलकर बड़ी हुई थीं। फिर भी उनका गौर-वर्ण, निर्दोष गठन देखकर दूर से कोई भी कह सकता था कि वे पहाड़ी हैं। छोटे पुत्र की आदमक़द तस्वीर को देखकर कली मुग्ध हो गयी थी। ऐसे जवान पुत्र की मृत्यु से बड़ा दुख माँ-बाप के लिए और क्या हो सकता था? और फिर इसी युवा पुत्र की स्मृति में घर की बहू भी तो कालिख पोतकर चली गयी थी।

रेवतीशरण तिवारी के यहाँ साधुओं का समागम कोई नवीन घटना नहीं थी। नित्य कोई-न-कोई बाबा आते रहते। उनके घनिष्ठ मित्र घोषाल बाबू ही पहले-पहल स्वामी विदुरानन्दजी को उनके यहाँ लाये थे। कद्दावर पठान-से थे स्वामीजी। गाल जैसे लाल सेब धरे हों, कन्धे तक झूलते घुँघराले केश और किसी नादान बालक की-सी दूधिया हँसी। तिवारी दम्पती उन्हें देखते ही उनके दासानुदास बन गये थे। सुरीले कण्ठ में गाये गये भजन दूरचूर से लोगों को खींचने लगे। संध्या होते ही अगरु चन्दन के सुगन्धित धुएँ से आवेष्टित मृगचर्म पर बैठे स्वामीजी की भव्य मूर्ति जो देखता उसी के चित्त का समस्त कलुष, संशय स्वयं धुल जाता। कोई कहता सी वर्ष के हैं, कोई कहता परब्रह्म हैं भाई, उम्र का क्या ठिकाना, क्या पता दो सौ वर्ष के
हों।
एक दिन चम्पा की सास ने स्वामीजी के दोनों पाँव पकड़ लिये, ''महाराज, आप तो बद्रीनाथ जा रहे हैं। पता नहीं कब लौटेंगे, जाने से पहले मेरी इस अभागिनी बहू को दीक्षामन्त्र देना ही होगा।''
पता नहीं कैसा दीक्षामन्त्र दिया स्वामीजी ने। सुबह सास उठीं तो न बहू थी न स्वामी। सारे कपड़े ढूँढ़े, पागलों की भाँति भागते वृद्ध दम्पती दक्षिणेश्वर गये। कभी स्वामीजी वहाँ भी चले जाते थे, क्या पता बहू भी उनके साथ चली गयी हो। वह पाखण्डी उनकी सुन्दरी बहू को लेकर कहीं भाग भी सकता है, यह कल्पना भोले दम्पती के निष्कपट मस्तिष्क में नहीं आ सकती थी।

एक दिन बीता, रात भी बीत गयी, तो दोनों अर्ध-विक्षिप्त-से हो गये। बड़ी लड़की को ट्रंक मिलाया, तीसरे दिन जामाता-पुत्री आये, दामाद पुलिस विभाग का वरिठ कर्मचारी था।
''जया ने आपसे पहले ही कह दिया था अम्मा, 'आपने बहू को बहुत छूट दे दी थी। चाहने पर मैं अभी लम्पट को पकड़कर आपके पैरों में डाल सकता हूँ। पर क्या अब आप उसे ग्रहण कर सकेंगी?''
दो-तीन दिन तक स्वामीजी के असंख्य दर्शनार्थी भक्त, आ-आकर लौट गये। स्वामीजी बद्रीनाथ चले गये।

और बहू?
वह मायके चली गयी है, अब वहीं पढ़ेगी, कलकत्ता में उसका मन नहीं लगा। इस प्रकार तिवारी परिवार का कलंक केवल परिवार के कुछ ही सदस्यों तक सीमित रहा।
''प्रवीर को लिखकर क्या होगा-आने पर स्वयं ही जान जाएगा,'' कहकर शान्त प्रकृति रेवतीशरण ने बड़ी पुत्री की लिखी लम्बी चिट्ठी फाड़ दी थी।

अम्मा ने सुवीर का कमरा ही कली के लिए खाली कर दिया था।
''यह कमरा सबसे हवादार है और एकदम कोने पर है। इसी से किसी के आने-जाने से भी तुम्हें, कभी कोई असुविधा नहीं होगी। पर बेटी, कहीं तुम अकेली डरोगी तो नहीं?'' चिन्तित स्वर में पूछे गये अम्मा के भोले प्रश्न ने कली को मन-ही-मन गुदगुदा दिया।
''वह भला डरेगी!''
''मैं और बाबूजी, दो कमरे छोड़ तीसरे कमरे में ही सोते हैं और महावीर रात-भर कसकर पहरा देता है। इस कमरे का द्वार एकदम सड़क के मुहारे खुलता है, तुम इसी से अन्ना सकती हो।''

कली खाना प्रायः बाहर ही खा लिया करती थी और जब घर पर रहती अम्मा उसे ज़बरदस्ती अपने साथ बिठाकर खिलातीं।
स्वदेश से इतनी दूर थी, इसी से पहाड़ की चिड़ियाँ भी उन्हें पारी लगतीं। लाख बंगाली हो, कली का जन्म भी पहाड़ में हुआ था और वहीं रहकर बड़ी हुई थी। फिर वेचारी लड़की की न माँ थी न बाप था। दोनों ही उसे बहुत छोटी छोड़कर दिवंगत हो चुके थे। किसी मौसी ने ही उसे पाला है, यही सह बातें बना-बनाकर कली ने भोली अम्मा को ऐसा पटा लिया था कि वे उसे किराये की वात ही नहीं उठाने देती थी।

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