नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
आठ
जिस कमरे में कली रहती थी उसकी काँच-लगी अलमारी में अभी भी सुवीर की शादी के बरतन सजे थे-वैसे ही साधारण पीतल, कींसे और मुरादावादी कलई के थाली-परात, लोटे, पीकदान, जैसे हर मध्यवर्गीय पहाड़ी कन्या को दहेज में मिला करते हैं। एक कोने में एक जोड़ा पीले रंग में रँगी खड़ाऊँ रखी थीं, हल्दी से रँगे पीले पटले पर बने दो लाल रंग के बेडौल तोते लाल चोंचों से नींबू लटकाये जरा भी धुँधले नहीं पड़े थे।
जिस नक्काशीदार आईना-लगे पलँग पर कली सोती थी, वह भी सुवीर की शादी का पलंग था, उस जहाज़-से पलंग पर कली की-सी बीस कलियाँ एक साथ लोट-पोट सकती थीं। धीरे-धीरे कली ने कमरे की कायापलट कर दी। दहेज के बरतनवाली अलमारी को उसने आकर्षक लेंस के परदे से ढक दिया, एक कोने में उसने बक्से-सूटकेस को ही ढाँप-ढूँपकर, छोटा-सा दीवान भी बना लिया था। सूने कमरे की बदली सज्जा को देखकर अम्मा प्रसन्न हो गयी थीं। वैसे दीवान पर टँगे दो मनहूस चित्रों को हटाकर वह कमरे को कुछ अंश में और भी सँवार सकती थी, पर वह मन-ही-मन समझती था-मुत युवा पुत्र के कमरे में लगे उस चित्र को कली की आँखें बचाकर अम्मा नित्य ममता से निहार जातीं, उतनी बड़ी कोठी में कम-से-कम बारह कमरे थे। फिर भी अम्मा ने उसे उस कमरे में क्यों रखा होगा? शायद कमरे की रिक्तता से स्वयं मुक्ति पाना चाहती होगी।
उठते-बैठते, सोते-जागते, पतली मूँछों के बीच अपने बंकिम स्मित के प्रेत-से निर्जीव चित्र कली को बुरी तरह सहमा देता। कभी-कभी तो वह मेजपोश उठाकर उसे ढाँप देती।
दीवार पर दूसरी ओर पूरे परिवार का एक ग्रुप चित्र लगा था, जिसके सदस्यों के आधे अंग दमिक चौखट के भीतर पहुँचकर चाट चुके थे। चित्र शायद पचीस-तीस वर्ष पूर्व का था। पीले रंग के चित्र पर चारों ओर रंगीन बेलबूटे बने थे। गहस्वामी उस युग की साहबी वेशभूषा में तनकर बैठे थे। पारसी ढंग से, खूब-लम्बा आँचल लटकाये, घुटनों पर दोनों हाथ बिछाये अम्मा मुसकरा रही थी। आसपास घुटनों तक की स्कर्ट और बीच में जापानी गुड़िया-सी दोनों पुत्रियाँ और सेलर सूट में जुड़वाँ-से लगते दोनों भाई एक-दूसरे का हाथ पकड़े सहमे के खड़े थे, दोनों चित्रों को हटा देने पर कमरा निश्चय ही बहुत-कुछ उजला बन सकता था, पर कली ने जान-बूझकर ही दोनों को वहीं रहने दिया था। एक तो वह घर पर रहती ही बहुत कम थी। इधर कई विदेशी अतिथियों को लेकर उसे लम्बे दौरे पर जाना पड़ा था। आगरा, दिल्ली, नागार्जुन, भाखड़ा आदि घुमा-फिराकर पूरे महीने-भर बाद लौटी थी।
आते ही उसने देखा गोल कमरे के द्वार पर आकर्षक परदे झूल रहे हैं। न जाने कहीं से क़तार-कीं-क़तार गमलों की आकर बिछी है। एक दस-बारह वर्ष की गोल-गोल-सी गोरी लड़की, लोहे के फाटक में दोनों पैर रखकर, झूला झूल रही थी। कली की गाड़ी देखते ही कूदकर भीतर भाग गयी।
ऑफ़िस की लम्बी गाड़ी कली का सूटकेस उतारकर चली गयी।
उसकी अनुपस्थिति में शायद अम्मा की बड़ी पुत्री का परिवार आ गया होगा। साल में एक बार जाड़ों की छुट्टियों में अम्मा की दोनों पुत्रियाँ पहाड़ से आती थीं। झूला झूलने वाली लड़की शायद अम्मा को कली के आने की सूचना दे आयी थी। कली ने पहले सोचा स्वयं ही अम्मा को जाकर अपने आने की सूचना दे आये। उसे अभी फिर दोपहर की गाड़ी से लखनऊ जाना था। चिकन की साड़ियों की किसी नुमाइश में मॉडल बनने के अनुबन्ध पर उसने तब बिना सोचे-समझे ही दस्तखत कर दिये थे। तब क्या पता था कि इस एक महीने के भीतर उसकी हड्डी-हड्डी दुखने लगेगी।
''अरे, तू आ गयी! एक तार ही कर देती तो महावीर स्टेशन चला जाता, गाड़ी तो गैरेज में ही दिन-रात पड़ी रहती है,'' कहते हुए अम्मा आकर मोढ़े पर बैठ गयीं।
''नहीं अम्मा, ऑफिस की स्टाफ कार आ गयी थी। मुझे अभी फिर तीन दिन के लिए बाहर जाना है।'' एक महीने निरन्तर घूमने-फिरने से कली का मुँह उतर गया था।
''हद है यह नौकरी,'' अम्मा असन्तुष्ट स्वर में कहने लगीं। ''यह भी क्या कि लड़की को घुमा-फिराकर मार ही डालो, जया-माया दोनों आ गयी हैं। माया तो आज अपनी सहेली से मिलने चली गयी, तू नहा-धोकर आ, तुझे सबसे मिला दूँ। ''पुत्रियों के परिवार के आ जाने से अम्मा के चेहरे पर जैसे नयी रौनक़ आ गयी थी।
कली ने नहा-धोकर आईना देखा और स्वयं अपना चेहरा उसकी आँखों से
अनजान बना टकरा उठा। क्या गत वन गयी थी चेहरे की, सूजी-सूजी आँखों के नीचे झाई, रूखे बाल।
शरीर पर सचमुच ही वह घोर अन्याय कर रही थी। रात-दिन का घूमना, उस पर बदपरहेजी!
ऐसे वह भला अम्मा की पुत्रियों से मिल सकती थी। कई रात्रियों का समवेत जागरण पूरे चेहरे पर उभर आया था। वह पहले खूब देर तक पूरे वेग से नल खोलकर उसके नीचे बैठी रही। बिजली से बाल सुखाकर कलिंग पिन खोली और गुच्छे-के-गुच्छे मुलायम मुड़े-तुड़े बाल कन्धे पर बिखर गये। टेढ़ी माँग निकलने पर उसका चेहरा और बचकाना बन जाता था। फिर उसने अपनी सबसे सोवर साड़ी निकाली। आन्ध खद्दर की ऑफ-प्वाइट वही साड़ी जिसे पहन उसने मद्रास हैण्डलूम एम्पोरियम में देश-विदेश से एकत्रित हुई पचीस मॉडलों की सलोनी सूरत पर झाडू फेरकर रख दिया था। एक ओर लाल जरी की कन्नी, दूसरी ओर काले मिट्टी पाड़ में, जरी की चमकती विद्युत्( वहि, जो किसी बिजली की ही भाँति गिरने वाले को विस्फोट से पहले ही भस्मीभूत कर देती थी। कानों में वह केवल हीरे के दमकते कर्णफूल ही पहनती थी। इन्हीं कर्णफूलों की स्वामिनी बनने के लिए उसे जान हथेली पर रख, चलती ट्रेन से कूदना पड़ा था।
कैसा दुस्साहसी कलेजा था तब!
और अब?
एक लम्बे अरसे तक वह धधकती भट्टी में हाथ डालकर खेलती रही थी, पर अब एक सामान्य-सी चिनगारी उसे भयभीत कर देती थी। चिड़िया का कलेजा बन गया था उसका। कभी-कभी अचानक वह नींद में ही जोर से चीखकर काँपने लगती। लगता कोई छाती पर चढ़ उसका गला घोंट रहा है। अपने कण्ठ से निकली, गोंगों करती अस्वाभाविक डरावनी आवाज़ से वह स्वयं ही जग खिसियाकर उठ बैठती। पसीना-पसीना बनी, वह फिर बड़ी देर तक सो ही नहीं पाती।
अपनी कम्पनी के डाँक्टर गुप्ता के पास वह गयी, तो उन्होंने हँसकर कहा था, 'नर्वस मिस मजूमदार नर्वस, शादी कर लो, बस फिर कोई छाती पर चढ़कर गला नहीं घोटेगा।'
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