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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


जिस फ्लैट में कली रहती थी उसके सामने ही एक लाल ईटों का बना बड़ा सुन्दर-सा मकान था। कला को वह कलकत्ते के आधुनिक कलात्मक फ्लैट्स की भीड़ में खड़ा पुसा लगता, जैसे बनी-ठनी उसकी-सी आधुनिकाओं की खोखला प्रतिमाओं के बीच, कोई भी घूँघट काढ़े सलज्जा ग्राम-वधू ही खड़ी हो। न उसके द्वारों में परदे थे, न खिड़कियों में। तनिक निकट जाने पर ही भीतर के कमरों की 'अन्तरंग छवि का स्पर्श करती कली की उत्सुक दृष्टि सीधे रसोईघर तक पहुँच जाती, जहाँ गृह की सज्जा से मेल खाती सरल और प्रौढ़ गृहस्वामिनी कभी कड़ाही में ठेठ उत्तर प्रदेशी मसालों में पालक का साग छौंकती, और काल्पनिक स्वाद लेते कली के नथुने फड़क उठते।  

'देवदार' में माँ के पड़ोस में रहती थीं मिसेज जोशी। कली ने उन्हें कभी हँसते नहीं देखा। जब छुट्टियों में घर आती, देखती उदास जोशी चाची रसोई में कड़ाही में कुछ-न-कुछ घोट रही हैं। लगता हाथ कहा हैं, चित्त कहीं। कभी लग्यं बड़बड़ाने लगतीं, कभी चुप हो गुमसुम बैठ जातीं। स्वयं उन्हीं की पुत्री ने एक दिन कली को बताया था, तीन पुत्रियों के बाद जन्मा उनका सुकुमार पुत्र घोड़े से गिरकर मर गया था। तभी से माँ ऐसी हो गयी हैं। कली जब भी जाती वे बड़े प्रेम से उसे चौके में बिठाकर स्वयं अपने हाथों से नाना प्रकीर के स्वादिट पहाड़ी व्यंजन बनाकर खिलातीं।

कलकत्ते के उस लाल ईंटों के मकान की गहस्वामिनी को देखकर कली को जोशी चाची की ही याद हो आती। वैसी ही उदास दृष्टि, बड़ा-सा टीका, यहाँ तक कि दबे होंठों का संयमित स्मित भी एकदम चाची का-सा था। एक दिन वह दफ्तर जा रही थी, नित्य के अभ्यास से उसकी दृष्टि स्वयं ही लाल कोठी की ओर उठी। बरामदे में ही वह सौम्य महिला खड़ी थी।
''क्यों बेटी, कहीं नौकरी करती हो क्या, रोज़ इसी समय तुम्हें जाते देखती हूँ?''
''जी हां, ''कली उस सीधे पल्ले में एकदम अबंगाली महिला के मुख से सुस्पट बंगला सुनकर अवाक् हो गयी। 
''क्या यहीं रहती हो?''
''जी हां, बस तीन फ्लैट छोड़कर चौथे में। ''
''कभी आना, मैं अकेली रहती हूँ। मन बहल जाएगा।''
और फिर तीसरे दिन, नियति ने कली को किसी जादुई गलीचे में बिठाकर वहाँ सामान सहित पहुँचा दिया था।

रेवतीशरण तिवारी को कलकत्ता में रहतें दो पुश्त बीत चुकी थी। उनके दादा को काली मन्दिर में शतचण्डी का पाठ करने कलकत्ता के प्रसिद्ध जमींदार ने पहाड़ से बुलवाया था। धीरे-धीरे कलकत्ता में उनकी यजमानी में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गयी।

उस निठावान् तेजस्वी ब्राह्मण के दमकते लनाट, सुमधुर कष्ठ, सुस्पष्ट संस्कृत-उद्यारण ने उन्हें बंगाल के समृद्ध वैष्णव परिवारों का पुरोहित बना दिया! पुत्र को भी उन्होंने इसी आशा से संस्कृत पढ़ने काशी भेजा था कि शास्त्री की परीक्षा पास कर पिता की यजमानी सँभाल लेगा। पर शास्त्री पुत्र ने पिता का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। कलकत्ता के ही एक मारवाड़ी कॉलन में वह सरकूल पढ़ाने लगा, फिर स्वयं अपने पुत्र रेवतीशरण को भी उसने अँगरेजी स्कूल में दाखिल करा दिया। ऊँची शिक्षा प्राप्त कर, रेवतीशरण ने सर्वोच्च सरकारी पद पर पहुँचकर अपने शास्त्री पिता का, पुत्र को अफ़सर बने देखने का, स्वप्न पूरा कर दिया था। अब वे अवकाश ग्रहण कर, पुश्तैनी मकान में रहते थे। दोनों पुत्रियाँ अपने ही समाज में ब्याह दी थीं, बड़ा पुत्र प्रवीर काबुल दूतावास में उच्च पदस्थ अफ़सर था, छोटे पुत्र सुवीर की दो वर्ष पूर्व भारत-पाकिस्तान युद्ध में मृत्यु हो चुकी थी। शायद उसी सुदर्शन युवा पुत्र की अकाल मृत्यु ने वृद्ध दम्पती को अस्वाभाविक रूप से गुमसुम बना दिया था।
फिर पिछले वर्ष उसी परिवार में एक दुर्घटना घट चुकी थी। परिवार का ज्येष्ठ पुत्र जय माता-पिता के लाख सिर पटकने पर भी विवाह के लिए राजी नहीं हुआ तो हारकर बड़ी बहन ने छोटे भाई के लिए ही सुन्दर-सी हहू खोज दी। उसी के रिश्ते की ननट लगती थी।
विवाह को साल-भर भी नहीं हुआ था कि सुवीर को युद्ध में जाना पड़ा। कभी बाड़मेर, कभी जोधपुर, कभी कश्मीर। जहाँ-जहाँ पाकिस्तानी बम गिराते, वहीं जैसे जान-बूझकर ही उसे जाने का आदेश मिलता। फिर भी कोई उसका बाल बाँका नहीं कर सका। पर जैसे ही युद्धबन्दी की घोषणा हुई, किसी विश्वासघाती पाकिस्तानी की एक ही गोली ने उसे ठण्डा कर दिया।
रेवतीशरण तिवारी तत्काल बहू को कलकत्ता ले आये। इतना बड़ा मकान था और भी सब सुविधाएँ थी-विधवा बहू उन्हीं के पास रहकर पढ़ेगी। फिर वे स्वयं बहू को कॉलेज में भर्ती करा आये। कॉलेज जाने लगी तो स्वयं सास ने जिद कर हाथ में सोने की चूड़ियाँ डाल दीं।
सीधी-सादी डरपोक सुन्दरी पहाड़ी बहू की झुकी गरदन, धीरे-धीरे सर्पगन्धा के फन-सी उठने लगी। अब वह कभी-कभी रोली की छोटी-सी बिंदी भी धर लेती। गृह की बड़ी पुत्री जया मायके आयी तो एक वर्ष की ताजी विधवा बहू का श्रृंगार देखकर चकित रह गयी। हाथों में सोने की चूड़ियाँ, गले में चेन, आँख में धूप का चश्मा और बगल में दबी पुस्तकें!
जया बड़ी बुद्धिमती थी, माँ के भोले निरीह स्वभाव को वह जानती थी।
''अम्मा,'' उसने माँ को एकान्त में खींचकर समझाया भी था, ''तुम क्या एकदम ही सठिया गयी हो? सुवीर की बहू को पढ़ा-लिखाकर उसके पैरों पर खड़ी करना चाहती हो, यह सब ठीक है, पर तुम तो उसे धकेलकर दौड़ना भी सिखा रही हो!

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