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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''अब आप लोग इतने सालों में मिले हैं। दाल-भात में मूसरचन्द नहीं बत्ती, चल दिया जाये।'' वह फिर उसी बेहयायी से हँसकर उठ गयी। ''अब देरी नहीं
करूँगी, थोड़े-बहुत कपड़े रख रही हूँ माँ, तलाशी लोगी क्या अपनी वडी दी की तरह?''
पन्ना ने आहत दृष्टि से रंजन की ओर देखा, जैसे कह रही हो, 'देख रहे हो ना? यह मुझे रोज ऐसे ही जलाती है।' रंजन को उस उद्दण्ड छोकरी की अभद्रता असह्य हो उठी। वह स्वयं अपने बलों को सदा कड़े अनुशासन में साधता चला आया था र उसकी एक ही गर्जना से दाढ़ी-मूछ निकल आने पर भी जवान लड़के सहमकर रह जाते थे।
''जाना है तो चली क्यों नहीं जाती!'' उसका चेहरा तमतमा उठा, ''क्या जन्म से अब तक जला-जलाकर उसे तुमने अधमरी नहीं बना दिया है?''
''वाह,'' कली ने बटुआ उठाकर कन्धे पर लटका लिया, ''मुझे लगता है आप मन्त्री से अधिक, किसी बम्बइया फ़िल्म में फ़िल्मी पिता के रूप में चमकते। वैसे मैं आपसे बहुत छोटी हूँ और सच पूछिए तो दो घण्टे पहले तक आपकी पुत्री ही थी, पर क्यों नहीं आप दोनों सचमुच किसी फ़िल्मी माता-पिता की भूमिका निभाने बम्बई चले जाते?''
''मैं स्वयं उसी लाइन में जाने की सोच रही हूँ। पर अभागे माँ-बाप का रोग पता नहीं कब गरदन दबोच ले। अच्छा, सो लांग माँ, थैंक्स फ़ॉर एवरी थिंग, और ''मन्त्रीवर,'' वह अपनी पतली कमर को बेंत के लचीले धनुष-सी मोड़ती टुहरी हो गयी,''थैक्स फॉर गिविंग मी योर सरनेम, कृष्णकली मजूमदार ही आपने बना दिया है, तो क्यों न स्वदेश की ओर चल दूँ।''
वह अपना सुडौल पृष्ठभाग लयबद्ध ताल में साधती कमरे से बाहर हो गयी। पन्ना ने उठकर शायद उसके पीछे जाने की चेष्टा की, पर रंजन ने उसे खींचकर बिठा दिया।'' जाने दो,'' वह फुसफुसाया, ''स्वयं ही फोड़ा फूट रहा है, तो उसमें चीरा लगाकर क्या करोगी। जब सब सुन ही चुकी है, तो अब उसका तुम्हारे साथ रहना ठीक नहीं है। तुमने उसके लिए जितना किया और कोई नहीं कर सकता। तुम अपना कर्त्तव्य कर चुकी हो, अब मेरी बारी है।''

विद्युतरंजन पत्नी से बिना कुछ कहे ही निकल आया था। वह भूखो बैठी होगी यह आन आते ही वह उठ बैठा। क्लान्त पन्ना उसकी छाती से लगी चुपचाप पड़ी थी। रंजन कल चला जाएगा, फिर वह उस एकान्त बँगले में अकेली रह जाएगी। रंजन के हास्यास्पद प्रस्ताव को वह स्वीकार नहीं कर सकती थी। दार्जिलिंग में रंजन के तीन-चार बँगले थे। वह चाहता था पन्ना वहीं चलकर रहे। बीच-बीच में वह आकर उससे मिलता रहेगा। रंजन की चतुरा माँ अब नहीं रही थी, उसकी मूर्खा मोटी पली को पति के मन्त्रिपद एवं वैभव ने और भी मोटी, थुलथुली और आलसी बना
दिया था। दोनों पुत्र अपनी-अपनो पत्नियों में मग्न थे।
''तुम्हें कभी कोई चिन्ता नहीं रहेगी। मैं असम के दौरे और भी बढ़ा दूँगा, चाहने पर महीने में दो बार भी आया जा सकता कैं।''
पन्ना के निर्विकार चेहरे पर उत्साह की एक भी रेखा नहीं उभरी। ''नहीं रंजन,'' वह आँचल सँभालकर उठ बैठी, ''जैसे फाँसी दिये जाने से पहले अभियुक्त की प्रत्येक इच्छा पूरी कर दी जाती है ना?'' वह हँसी, ''ऐसे ही मैंने अपनी मनचाही वस्तु कलेजे में सँजोकर छिपा ली है, अब मैं आगे नही बढ़ूँगा। एटकिंसन का पूरा परिवार अब भीम ताल छोड़कर अरविन्द आश्रम जा रहा है, उसने मुझे साथ ले चलने का वायदा किया है।''

''कौन है एटकिंसन?'' झल्लाकर प्रश्न पूछते ही रंजन स्वयं खिसिया गया। 
''कोई भी हो एटकिंसन?'' उसे क्या अधिकार था पन्ना की गतिविधि पर रोक-टोक रखने का, जिसकी मरे-जिये की सुधि भी उसे आज तक कभी नहीं आयी थी। 
''एटकिंसन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, अरविन्द आश्रम की एक जमीन का मुरब्बा भीमताल में भी है, उसी की देख-रेख का भार आश्रम ने उन्हें सौंप दिया था। दोनों पुत्रों ने संन्यास ले लिया, एक अरविन्द आश्रम में है, माँ के पास, दूसरा न जाने हिमालय की किन गहन कन्दराओं में जाकर खो गया है। तुम मेरी चिन्ता मत करो रंजन,'' प्राणाधिक सुन्दर चेहरा रंजन के गालों के पास आकर सट गया, ''न मुझे अब तुम पर क्रोध है, न प्रतिशोध की ही भावना। कैसा आश्चर्य है सच, कुछ घण्टों पहले जय मैंने तुम्हें फ़ोन किया, तुम्हें पाने पर कच्चा चबा सकती थी। पर अब जैसे स्वयं ही सब कुछ धुलकर साफ़ हो गया है।

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