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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''कली को भी क्या दोष दूँ-जब रक्त-मांस की बनी सगी बड़ी दी ही मेरी शत्रु बन बैठीं तो उस परायी लड़की के लिए यह सोचना कि वह कभी मेरी बनेगी, सचमुच ही मेरा बचपना था। फिर भी एक बार आश्रम जाने से पहले बड़ी दी से मिलने की बड़ी इच्छा है।''
''तुम्हारी बड़ी दी क्या वहाँ अब बैठी हैं?'' रंजन ने सिगार की राख झाड़कर, मुँह में दवा लिया। दोनों हाथ पीठ-पीछे बाँधकर वह फिर लेट गया।
''क्यों? पीली कोठी?'' पन्ना ने पूछा।
''पीली कोठी में अब प्लानिंग का दफ्तर है। बड़ी दी पाकिस्तान चली गयीं, कोई रहमतुल्ला हैं, उन्हीं से निकाह पढ़ लिया। मैत्री ने कलकत्ते में ब्यूटी क्तिनिक खोल लिया है। वाणी सेन दिल्ली में है, उसी ने तो बताया मुझे यह सब।''
''दिल्ली में? वहाँ क्या कर रही है वाणी?''
''मोटी स्त्रियों को तन्दी बनाती है। 'स्लिमिंग सेण्टर' में अपनी पली को लेकर गया, तो देखा दफ्तर में बनी-ठनी वाणी सेन बैठी है। वैसी ही धरी है अभी
भी-दुबली-पतली, छरहरी। मुझे देखा, पहचाना, पर पट्ठी ने चेहरे पर पहचान की एक रेखा भी नहीं उभरने दी। एकान्त में मिली, तो पहला प्रश्न उसने यही आ, ''क्या मैंने उसकी कली को देखा है?''
''मैंने जब कहा कि न मैं कली से मिला हूँ न उसकी मां से, तो वह उदास हो गयी। उसी ने मुझे बताया कि कैसे नये क़ानून बनते ही बड़ी दी का कारोबार एकदम ठप्प हो गया। वाणी दिल्ली चली आयी और वहाँ उसने किसी योगी के साथ साझे का क्लिनिक खोल लिया। वह बता रही थी कि जितना पैसा उसने उस क्लिनिक से कमाया उतना उस धन्धे में कभी नहीं कमा पायी थी। वाणी झूठ नहीं बोल रही थी पन्ना! ओफ़, कैसी-कैसी कारों की लम्बी क़तार खड़ी थी। कितनी ही विदेशी दूतावास की मेमें सिर के बल खड़ी योगाभ्यास कर रही थीं।
''गेरुए रेशमी वस्त्रों में वाणी के रँगीले स्वामी को देखा तो दंग रह गया। हाथ में थीं हीरे की अँगूठियाँ, गले में रुद्राक्ष की माला और सिर के बाल तो, लगता था, 'फ़िक्सो' लगाकर खड़े किये हैं। 'वाह वाणी', मैंने कहा, 'तुम और तुम्हारे योगिराज दोनों इस क्लिनिक के जीते-जागते विज्ञापन हो। 'गाजर, मूली, टमाटर का रस पिला और सिर के बल खड़ी कर सचमुच वाणी ने मेरी पत्नी का वजन पूरा एक स्टोन घटा दिया था। वाणी सेन से यदि मिलना चाहो, तो अलबत्ता मिला सकता हूँ...''
''नहीं, अब किसी से नहीं मिलूँगी, जिससे मिलना चाहती थी, उससे मिल चुकी हूँ और जिससे बिछुड़ना चाहती थी, उससे भी बिछुड़ चुकी हूँ। देख आऊँ, क्या सचमुच ही चली गयी?''
उसके पीछे-पीछे उठकर रंजन भी चल दिया, दोनों ने बँगले का कोना-कोना छान मारा, कली कहीं नहीं थी।
''हो सकता है कहीं मिलने-मिलाने चली गयी हो, दिमाग़ ठण्डा होगा तो खुद ही चली आएगी।''
''नहीं, अब वह कभी नहीं लौटेगी, मैं उसके स्वभाव को क्या नहीं पहचानती! मुझे और किसी की चिन्ता नहीं है, बस यही भय होता है कि रोज़ी न जाने क्या सोचेगी! उसे आज ही फ़ोन पर यह सब बताना होगा।''
''क्यों अपना दिमाग खराब कर रही हो पन्ना,'' रंजन ने टोपी उतारकर हाथ से उसकी मुड़ी-तुड़ी भींज ठीक की, तिरछी कर माथे पर टिकाया, फिर अपना 'ब्रीफ़केस' उठाकर खड़ा हो गया।
''मैं अब चलूँ कल सुबह फिर आऊँगा।'' पाँच ही घण्टों में उसके सम्मुख खड़ी पन्ना की वयस के जैसे दस वर्ष घट गये थे।
''क्या मुझे छोड़ने थोड़ी दूर तक भी नहीं आओगी, पन्ना?'' प्रणयी के आतुर आह्वान को पन्ना कैसे टालती।
कोठी का द्वार बन्द कर उसने ताला लगाया और रंजन के साथ मन्थर गति से
पगडण्डी उतरने लगी।
कल तक कौन सोच सकता था कि नित्य एक ही गति से बहते उसके जीवन में ऐसी उथल-पुथल मच जाएगी। क्या वह कभी स्वप्न में भी सोच सकती थी कि रंजन उसे अचानक मिल जाएगा, और कली ऐसी हृदयहीनता से उसे ठुकराकर अकेली छोड़ जाएगी?
निःशब्द दोनों कितनी दूर तक उतर आये।
''अब तुम लौट जाओ पन्ना,'' रंजन थमकर पलट गया, ''बहुत दूर आ गयी हो, मैं कल सुबह नौ बजे तक आ पाऊँगा, तब फिर निश्चय करेंगे, मैं तुम्हें यहाँ अकेली नहीं छोड़ सकता।''
पन्ना ने हँसकर दोनों हाथ उसके कन्धे पर धर दिये। देवदार के लम्बे पेड़ के तने से उसने अपनी पीठ टिका ली,'' अब तुम्हें कोई निश्चय नहीं करना है रंजन, निश्चय मैं कर चुकी हूँ। हमें यहीं आज ही विदा लेनी होगी, कल नहीं।
''तुम्हारी पत्नी है, युवा पुत्र हैं, उनसे मैं तुम्हें छीन लूँगी, तो कभी तुम स्वयं ही मुझे क्षमा नहीं कर सकोगे। मैं जा रही हूँ रंजन।''
इससे पहले कि रंजन उससे कुछ कहता, वह बिजली की गति से मुड़कर पगडण्डियों में यन्त्र-सी घूमती, तिरोहित हो गयी!
बड़ी देर तक विद्युतरंजन खड़ा सोचता रहा। क्या करे? लौट चले पन्ना के बँगले में? फिर उसके कर्त्तव्य-बोध ने उसे सहसा झकझोरकर रख दिया। मूर्ख! अभी तक केवल देश सेवा के बहाने देश का रुपया लूटने-खसोटने का ही कलंक लगा है, अब क्या चरित्र-हत्या भी करवाएगा? फिर राजभवन में मुख्यमन्त्रियों की सभा है ठीक पाँच बजे, चार यहीं बज गये हैं। तू उस पतिता वेश्या के पीछे भागने की सोच रहा है। स्वयं अपनी अन्तरात्मा की एक ही धमकी से रंजन सहम गया। उसने टोपी सीधी की, रूमाल से पसीना पोंछा और 'ब्रीफ़केस' बगल में दबाकर, तेजी से उतार उतरने लगा।

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