नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
पन्ना उसके पार्श्व में गूंगी बनी बैठी थी।
''जब वाणी सेन ने कहा कि तुम कली को लेकर कहीं चली गयी हो और अपना कोई
अता-पता भी नहीं छोड़ गयी हो, तो भी मैं तुम्हें ढूँढ़ता रहा। वाणी से ही
पता लेकर उस मेम को दो-तीन चिट्ठियाँ लिखीं, जो अल्मोड़ा के किसी
कुष्ठाश्रम में थी और जिसके साथ ही तुम पीली कोठी छोड़कर गयी थीं। पर
पता शायद ठीक नहीं था, किसी भी चिट्ठी का उत्तर नहीं आया। मैं चाहता था
तुम्हें प्रत्येक माह कुछ रुपया भेज दूँगा पर चारा ही क्या था। पन्ना,
क्या कली अभी भी बोर्डिग में ही रहती है?"
''नहीं, कहीं घूमने गयी है, आती होगी,'' रूखे उत्तर से भी विद्युतरंजन
ने हार नहीं मानी।
''क्या वह अपनी माँ-सी सुन्दर है या पिता-सी तेजस्वी?'' विद्युतरंजन ने
सामान्य-सी रसिकता की चुटकी लेकर, अस्वाभाविक रूप से तनी रूठी प्रेयसी
को गुदगुदाने की चेष्टा की।
''यही तो दुःख है रंजन,'' एक लम्बी साँस खींचकर पन्ना बोली, ''न वह
तुम-सी है न मुझ-सी, चलो भीतर के कमरे में चलें। पता नहीं कली कब आँधी
की तरह रग्राकर हम दोनों को उड़ाकर दूर पटक दे। इतने वर्षों से जो तूफ़ान
मेरे तन-मन को विक्षिप्त कर रहा है, वह आज तुम्हें भी दिखा दूँ।''
अपने बेडरूम में विद्युतरंजन को ले जाकर, पन्ना ने हाथ पकड़कर उसे पलंग
पर बिठा दिया।
''आज कितने वर्षों बाद मेरे पलंग पर बैठे हो! ठीक से बैठो ना, अजी वाह,
दोनों पैर क्या ऐसे ही लटकाये बैठे रहोगे। निश्चिन्त होकर बैठो,
तुम्हारे जाने के बाद कोई इस पर नहीं बैठा रंजन, इसी से कह रही हूँ
निश्चिन्त होकर बैठो। मेरा पेशा तुम्हारे साथ ही मुझे छोड़कर चला गया
था।''
झुककर पन्ना ने उसी भाँति उसके जूते खोले, आँचल से दोनों लम्बे पैर
पोंछे, और तकिया उठाकर पीठ के पीछे लगा दिया।
''कुछ भी नहीं भूली हूँ? देखा?'' एक बार वह पुनः इठलाती चतुरा वारवधू
बन गयी थी।
''पन्ना,'' मत्तप्रणयी ने उसे हाथ पकड़कर अपने पास खींचना चाहा, पर वह
परिचित कटाक्ष से उसे बींध पैरों के पास बैठ गयी।
''अभी नहीं, पहले तुम्हें मेरी पूरी कहानी सुननी होगी।''
फिर पन्ना सब कुछ कह गयी। उस अरण्य स्थित भुतहे देवदार में बिताये गये
लम्बे ग्यारह वर्ष, उद्दण्ड कली के अभिशप्त जीवन का पूरा इतिहास,
असदुल्ला,
पार्वती, रोजी, अल्मोड़ा प्रवास, आधी रात का उसकी गोदी में डाल दी गयी
कली, बड़ी दी की स्वार्थपरता-एक-एक बात वह कहती गयी और स्तब्ध
विद्युतरंजन सुनता रहा।
''आज वही अकृतज्ञ मुझे दूध की मक्खी-सा निकालकर दूर फेंक रही है।
बार-बार अविश्वास से पूछती है, मेरे पिता कौन हैं? एक बार जी में आता
है, साफ़-साफ़ कह दूँ छोकरी अपने को हूर समझती इठलाती फिरती है, तेरा
पिता है कोढ़ी, और माँ है कोढ़िन, जाने किन गलियों में भीख माँगते फिर
रहे होंगे। क्या पता यहीं, नैना देवी के मन्दिर के बाहर बैठी कोढ़ियों
की पंगत में ही तुझे तेरा पिता अँगुलियों के डुण्ठ चमकाता मिल जाय, या
नन्दा देवी के मेले में कोढ़ियों की भीड़ में तुझे तेरी गधी माँ ही दिख
जाये। रोजी बता रही थी कि अभागिनी को रोग ने पंगु ही नहीं, अन्धी भी
बना दिया है। एक दिन रोज़ी के बक्स का ही सफ़ाया कर, लम्पट भाग गयी और
फिर नहीं लौटी। कैसी मूर्खता कर बैठी हूँ मैं, ऐसे माता-पिता की इस
दुर्दमनीय सन्तान को मैं क्या कभी सुधार पाऊँगी?''
''चिन्ता मत करो माँ, तुम्हें नहीं सुधारना होगा,'' हाथ का बटुआ झुलाती
कृष्णकली द्वार पर खड़ी थी। अधलेटा विद्युतरंजन हड़बड़ाकर उठ बैठा। पन्ना
का चेहरा फक्र पड़ गया। यहाँ कहाँ से आ गयी! इतनी जल्दी तो वह कभी लौटती
ही नहीं थी!
''वाह, अच्छा किया जो बिना पिक्चर देखे ही लौट आयी, नहीं तो आज अपने घर
में ही चल रही ऐसी 'इण्टरेस्टिंग मैटिनी' मिस कर जाती।''
वह हँसती, हाथ का बटुआ मेज पर पटक धम्म से कुरसी पर बैठ गयी।
कली को सहसा द्वार पर आविर्भूता देख, दोनों सँभलकर बैठ गये थे। पर रंजन
हड़बड़ी में पन्ना की कलाई छोड़ना भूल गया था। उसकी मजबूत पकड़ में पन्ना
की कलाई काँप उठी और उस मुँहफट छोकरी का दुस्साहस देखकर रंजन और भी
बौखला गया।
''क्यों बेटी, क्या अपनी माँ से तुम हमेशा ऐसे ही बोलती हो?''
''मेरी माँ? बँगला की एक कहावत है, सुनी नहीं क्या आपने-'सात काण्ड
रामायण पोड़े, सीता कार बाप'। किसी ने सात काण्ड रामायण पढ़कर पूछा था कि
सीता किसका बाप है, वही हाल आपका भी है। इतनी बढ़िया रामायण बाँची गयी
और आप पूछते हैं कि क्या मैं माँ से ऐसे ही बोलती हूँ। माँ मेरी है ही
कहीं मौशाई!'' बचपन में वाणी सेन से सीखी बँगला कली अभी भी नहीं भूली
थी। फिर कान्वेण्ट में भी दो-तीन बंगाली सखियाँ जुट गयी थीं। इसी से
उसकी बँगला में अभी भी जंग नहीं लग पाया था।
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