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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


छह


मृदुभाषी ए. डी. सी. ने उसका नाम पूछा तो वह क्षण-भर को चुप रह गयी। फिर हँसकर बोली, ''आप कहिएगा, उनसे एक महिला कुछ पूछना चाहती है।'' बड़ी देर तक फ़ोन का चलो हाथ में लिये पन्ना खड़ी रही। फिर उसने कुरसी खींच ली और वैठकर पसीना पोंछने लगी। ओफ्, बिना देखे ही उसका यह हाल था, कहीं रंजन और वह आमने-सामने खड़े होते, तो शायद मूर्च्छित पन्ना धरा पर लोटती नज़र आती।
''हैलो,'' फ़ोन में वर्षों पुराना परिचित स्वर उसी नम्रता से गूँज उठा।
पन्ना का गला घुट गया, वह चाहने पर भी दो-तीन बार पुनरावृत्ति की गयी हैलो का उत्तर ही नहीं दे पायी।
''मैं बोल रहा हूँ, वियुतरंजन मजूमदार। कहिए क्या कहना है?''
''मैं...मैं...'' पन्ना की आँखें बरसने लगीं। हाथ काँप रहा था। लगा फोन अब गिरा, तब गिरा। ''जी, मैंने पहचाना नहीं, आप कौन हैं?''
''मैं पन्ना हूँ,'' और उत्तर के साथ ही एक दबी सिसकी सुनने वाले के कानों तक पहुँच गयी।
अब उसकी बारी थी।
कुछ क्षणों तक वह भी शायद अपनी सारी राजनीतिक प्रगल्भता भूलकर रह गया।
''रंजन, मैं हूँ पन्ना,'' पन्ना ने अब अपने स्वाभाविक धैर्य को फिर पा लिया था, ''मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ। क्या तुम चाहोगे कि मैं ही राजभवन चली आऊँ? शायद नहीं, तब क्या तुम अभी ऊपर आ सकते हो?''

अचानक उस हम प्रणयी के परिचित मीठे कण्ठ-स्वर ने पन्ना की यत्न से बनायी गयी योजना क्षण-भर में चौपट कर दी थी। मूर्खा पन्ना उसे अपना पता-भर देकर रह गयी थी। जब वह नहीं आएगा तब? क्या पता चुपचाप, वहीं से आज ही खिसककर उसे घिस्सा दे दे। फिर भी वह धड़कते हृदय से उसकी प्रतीक्षा करने लगी। जिन उपेक्षित बालों का उसने वर्षो से ढंग से जूड़ा भी नहीं बनाया था, उन्हीं को यत्न से सँवारकर उसने ढीला जड़ा बनाया। वैसी ही कन्धे पर ढलने को तत्पर ढीला जूड़ा, जैसे वह पहले बनाया करती थी और जिसे रंजन खिलवाड़ में बार-बार खोलकर उसके
कन्धों पर फैला दिया करता थी। 'तुम हमेशा गुलाबी सड़िा पहना करो पन्ना,' वह कहता था। 'गुलाबी रंग में तुम मुझे खिले शतपत्र-सी लगती हो। '
हल्के गुलाबी रंग की चँदेरी साड़ी पहनकर उसने दक्षिणी कुंकुम का बड़ा-सा टीका लगाया। उसकी अँगुली में अभी भी रंजन की दी माणिक की अँगूठी दमक रही थी। आईने में उसने अपना प्रतिबिम्ब देखा और स्वयं ही लजा गयी। छिः-छिः, बुढ़ापे में क्या ऐसा शृंगार उसे शोभा देता है! कहीं छोकरी कली आ गयी तो आफ़त कर देगी। पर कली एक बार जाने के बाद क्या कभी दिन डूबने से पहले लौट सकती थी। सामान्य-सी आहट होने पर ही पन्ना चौंककर धड़कता कलेजा कसकर दाब ले रही थी। दूर-दूर तक की पगडण्डियों पर जब वह कहीं भी घोड़े या डाँडी को नहीं देख पायी, तो निराश होकर भीतर चली आयी।

रंजन अब क्या आएगा? दो घण्टे बीत चुके थे। इस बीच एक बार फ़ोन की घण्टी बजी, तो उसका कलेजा बुरी तरह धड़क उठा था। निश्चय ही रंजन कहेगा, वह आज नहीं आ सकता। पर फ़ोन रोज़ी का था। उसकी एक रोगिणी की अवस्था बहुत खराब हो गयी थी। वह इस शनिवार को पन्ना के साथ छुट्टी मनाने नहीं आ पाएगी।
फ़ोन सुनकर पन्ना द्वार बन्द करने जा रही थी कि ऊँचे भूरे घोड़े से उतरती क़द्दावर आकृति को देखकर ठिठक गयी।
उस व्यक्ति ने बटुए से निकालकर घोड़े के साईस को किराया दिया और इसकी ओर मुड़कर वैसे ही मुसकराया, जैसे पहली बार उसे देखकर मुसकराया था।
''पन्ना, क्या तुम इजिप्शियन ममी के-से किसी ताबूत में बन्द रही थीं? मुझे देखो, एकदम बूढ़ा हो गया हूँ ना?''
बूढ़ा होने पर भी वह व्यक्ति अभी भी सुन्दरी प्रौढ़ा के हृत्पिण्ड को घड़ी के पेण्डुलम-सा हिला रहा था, वह क्या स्वयं इससे छिपा था? पन्ना के आरक्त कपोल कितनी बार उन विलासी अधरों के निर्मम प्रहार से और भी आरक्त हो उठे थे, यह क्या वह कभी भूल सकता था? शायद पन्ना के काँपते होंठों और भीगी पलकों को उसने कनखियों से ही देख लिया था। ओह, तो अभी भी वह उसे क्षमा नहीं कर पायी है।

''वाह, खासा बँगला है तुम्हारा! पर यहाँ कैसे आ गयी पन्ना?'' दिन-रात विरोधी पक्षों से जूझने वाला राजनीति का कुटिल खिलाड़ी मर्म-स्थल पर चोट करना खूब जानता था।
पन्ना ने अपनी नीली आँखों की करुण दृष्टि उसके चेहरे पर गड़ा दी। उसकी मूक दृष्टि के उपालम्भ से रंजन तिलमिला गया।
अभी भी कितनी सुन्दर थी वह! इसी सौन्दर्य-पात्र की मादक मदिरा वह कभी
चाहने पर ही तुषित अबसे से लगा सकता था। वह मरालग्रीवा, नीली आंखें, सुनहले बाल, शतदल कमल की पंखुड़ियों-सी चम्पक अगुलियाँ-सब, कभी उसी की थी। आज इतनी पास होकर भी वे पकड़ से इतनी टूर कैसे चली गवइाए थीं।
''पन्ना'' विद्युतरजन उठकर टसके पास बैठ गया, बड़े लाड़ से उसने उसके घुटने पर धरी सफेद कलाई को उठा गालों से लगाकर आँखें बन्द कर लीं, "पन्ना, में जानता हूँ, तुम मुझे आज भी क्षमा नहीं कर सकी हो। पर मुझसे दूर भागकर क्या तुमने बहुत बड़ी मूखइता नहीं की? क्या तुम मेरी विवशता, मेरे वंश-परिवार के प्रति मेरे कर्तव्य, और सबसे बड़ी बात मेरी माँ को नहीं जानती थी? क्या तुम बड़ी दी के ही पास बनी रहती, तो मैं तुम्हारे पास नहीं आ सकता था? क्या हम उसी स्वतन्त्रता से बेरोक-टोक नहीं मिल सकते थे?''
पन्ना चुपचाप सिर झुकाये बैठी थी। विद्युतरंजन का एक हाथ अब उसके कन्धे पर था, दूसरे हाथ में वह पन्ना की कलाई थामे, बारम्बार गालों से लगाता, कभी कसकर छाती से सटा देता।
''मैं कई बार बड़ी के पास गया, वह तुम्हारा नाम भी नहीं सुनना चाहती थी। एक बार उसने मेरा ऐसा अपमान किया कि यदि तुम्हारी बहन न होती, तो मैं उसे जड़ से उखाड़कर बंगाल की सरहद के बाहर फेंक देता।'' अब तक प्रस्तर मूर्ति-सी बनी पन्ना अब वर्षों से विछुड़े प्रणयी के कन्धे पर हुलक गयी थी। अपना मान-अपमान, उपालम्भ, पीड़ा सब कुछ एक ही स्पर्श को पाते वह जैसे भूल गयी थी।
''पन्ना,'' वियुतरंजन ने उसे कठोर बाहुपाश में जकड़ लिया, ''मेरी ओर देखो पन्ना, क्या अभी भी तुमने मुझे क्षमा नहीं किया?''
पन्ना ने पहली बार आँखें उठायीं। कहाँ बूढ़ा हुआ था रंजन? क्या उन लाल डोरीदार आंखों में अभी भी रसवन्ती फुआर मन्दी पड़ी थी? कनपटी के आसपास बालों का गुच्छे का गुच्छा सफ़ेद हो गया था और तिरछी खद्दर की टोपी ने ललाट पर झुककर प्रशस्त माथे की परिधि थोड़ी सीमित कर दी थी, बस इतना ही तो बदला था वह!

''मेरी बच्ची कितनी बड़ी हो गयी पन्ना? वाणी सेन कह रही थी कि बहुत ही सुन्दर है कली,'' उसने बड़े दुलार से पन्ना के कान के पास होंठ सटाकर पूछा। प्रश्न के साथ-साथ जैसे अदर्शी बिटिया के प्रति उसका समस्त ममत्व, शराब के झाग की भाँति झलक उठा।
''मैंने उस सन्तान को निर्ममता से त्याग दिया और उसकी सजा भी मुझे मिल चुकी है,'' विद्युतरंजन का गला भर्रा गया। क्षण-भर वह कण्ठ के गहर को घुटकता रहा, फिर कहने लगा, ''दोनों को उसने सात महीने के भीतर-ही-भीतर छीन लिया, मुनिया प्रथम प्रसव में जाती रही, चुनिया खाना बना रही थी, स्टोव फट गया, झुलसी देह को न मैं पहचान सका, न उसकी माँ।''

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