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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


पाँच


''अब क्या होगा रोज़ी, कहीं रहूँगी मैं?''
''चिन्ता क्यों करती हो पन्ना, सच्चा आनन्द केवल सेवाव्रत में है, जब तक मैं हूँ तुम्हें चिन्ता किस बात की है?''
पर पन्ना को आज पहली बार अपने दायित्व का भास हुआ था, वह क्या अब अकेली थी? फिर अकेली भी होती तो क्या रोज़ी के साथ कुष्ठाश्रम में रह पाती? क्या वह उस रोज़ी की भाँति महान् हो सकती थी, जिसे स्वयं अपने हाथों से बीभत्स कुछ रोगियों के हाथ-पैरों के व्रण धोते वह कई बार देख चुकी थी...

एक बार रोज़ी ने बड़ी स्वाभाविकता से कहा था, ''पार्वती की आँखों में दवा डाल देना तो पन्ना।''
और वह बैठी नाक, झड़ी अँगुलियों और पलकहीन उन बड़ी आँखों को देखकर मृणा से सिहर उठी थी। बड़ी चेष्टा से उसने बिना पलकों की उन आंखों में दवा डाली थी, और घर आकर अँगुलियों को खूब रगड़कर डेटॉल से धोने पर भी उसकी सिहरन नहीं गयी थी। आज उसी पार्वती की पुत्री के लिए भोग-विलासपूर्ण समस्त सामग्री को स्वेच्छा से ही ठुकराकर वह चली गयी थी।
''रोज़ी'', उसने कहा, ''मेरे पास बैंक में बीस हजार रुपये पड़े हैं। शायद पाँच-सात हजार का गहना निकल आये। क्या तुम सोचती हो, इतने में मैं कली को लिखा-पढ़ाकर ठिकाने लगा सकूँगी?''
''बहुत समय है पन्ना, अभी क्यों घबरा रही हो,'' रोज़ी ने उसकी पीठ थपथपाकर, एक बार फिर उसे अपने मृदुल आश्वासन में बाँध लिया था।
रोज़ी का आश्वासन व्यर्थ नहीं था। वह चतुरा विदेशिनी पहले ही दोनों बहनों के सम्भावित मनोमालिन्य को सूँघ चुकी थी।
पन्ना तो उसकी सूझ-बूझ देखकर दंग रह गयी थी। नैनीताल के सीमान्त पर बसी 'देवदार' कोठी को, पूरे साल-भर का किराया देकर रोजी ने उसके लिए दो महीने
पहले ही बुक करा लिया था।
''मैं जानती थी, एक-न-एक दिन तुम मेरे पास ही आओगी और फिर अपनी इस सुन्दर धरोहर को मैं क्या कुष्ठाश्रम में रख सकती? इस एकान्त में, तुम स्वयं चाहने पर ही किसी से मिल सकती हो-उसके लिए भी तुम्हें एक मील नीचे उतरना होगा। तुम्हारे सबसे निकट 'रोज़ विले' है। वहाँ मेरे मित्र बिशप लियाँ रहते हैं। उसके नीचे उस लाल छत वाले बँगले में एक पहाड़ी परिवार रहता है। बड़े भले लोग हैं। मैंने उनसे भी कह दिया है, तुम्हें देखती रहेगी मिसेज़ जोशी।''
''पर मैं यहाँ अकेली कैसे रहूँगी रोज़ी?'' पन्ना को उस विराf बँगले के किसी बड़े जहाज के केबिन-जैसे कमरे काट खाने को दौड़ रहे थे। कली का स्कूल इतनी दूर था और रोज़ी का कहना था कि वह लाड़-प्यार में इतनी बिगड़ चुकी थी कि उसे बोर्डिंग में ही रखना पड़ेगा। कभी-कभी होम लीव मिलने पर वह पन्ना के पास आकर रह सकती थी।
''कुछ दिनों तक मैं तुम्हारे पास आकर रहूँगी। और यदि तुम मेरे पास ही आकर रहना चाहो, तो तुम्हारा स्वागत है। मैंने तुमसे पहले भी कहा था पन्ना, उस सेवाव्रत से बढ़कर तुम्हारे कठिन असाध्य मानसिक रोग की और कोई औषधि नहीं हो सकती।''
उत्तर में पन्ना ने सिर झुका लिया था। क्या रोज़ी के उस महान् सेवाव्रत के लिए वह कभी अपने अविवेक लम्पट चित्त को मना पाएगी?
कली के जीवन का इतिहास रेवरेण्ड मदर से छिपा नहीं था। रोज़ी उन्हें सब कुछ बता चुकी थी। ''उन तापसियो के दरबार में मिथ्या भाषण नहीं चलता पन्ना। मैं बात बनाकर कह देती, तो शायद स्वयं मेरा ही चित्त गवाही नहीं देता। मदर ने सरनेम के लिए पूछा तो समझ में नहीं आया क्या लिख दूँ-खान या मजूमदार?''

''मजूमदार ही लिखाना रोज़ी, क्या पता कभी यह खान नाम ही उसके विवाह-मार्ग में रोड़ा बनकर अटक जाये?''
रेवरेण्ड मदर ने केवल एक ही कड़ी शर्त रखी थी। बिना कली की रक्त परीक्षा के वे उसे बोर्डिंग में नहीं लेंगी। किन्तु कली का रक्त भी उसके सुन्दर निर्दोष चेहरे की भाँति निर्दोष निकला था।
कली के बोर्डिंग में जाने पर पन्ना को उस भाँय-भाँय करती विराट् कोठी की रिक्तता का आभास हुआ। आसपास कहीं भी कोई बँगला नहीं था। कोई रात-आधी रात आकर गला भी घोंट दे तो किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी।
''यह सब पहाड़ में नहीं होता पगली,'' रोज़ी ने उसे आश्वासन दिया था, ''मैंने जान-बूझकर ही तुम्हारे लिए यह बँगला छींटा है। जिस दलदल से तुम निकलकर आयी हो, और जिन्होंने तुम्हें वहाँ से निकलते देखा है, उनमें से किसी की भी दृटि तुम पर नहीं पड़े, यही सोचकर तुम्हें यहाँ लायी हूँ। मैं जानती हूँ कि जिस कोलाहल
में तुम्हें रहने का अभ्यास है, उसके बाद तुम्हें यहाँ मौत का-सा सन्नाटा लगेगा। पर एक नये जीवन की सृष्टि के लिए माँ को कितनी मर्मान्तक यातना सहनी पड़ती है, इसका तो तुम्हें अनुभव है ना?''
काँच के नीले बटन की-सी उस विदेशिनी की स्नेह-स्रिग्ध नीली आंखों में कैसी अनुभूत वेदना की झलक थी! क्या रोज़ी ने भी ऐसी वेदना सही होगी? क्या उसने भी कभी किसी निष्ठुर प्रेमी की ठोकर खाकर सेवाव्रत की उस 'धुरस धार' पर चलना स्वीकार किया होगा? आज तक कभी भी पन्ना ने उसके जीवन के अन्तरंग कक्ष का परदा उठाकर झाँकने की धृष्टता नहीं की थी।  ''क्यों रोज़ी, क्या कभी भी तुम्हें अपने स्वदेश की याद नहीं आती?'' एक ही बार उसने पूछा था।
''मेरा स्वदेश मेरा आश्रम है पन्ना,'' हँसकर दिये गये उस उत्तर ने ही पन्ना की जिज्ञासा का अन्त कर दिया था।
जाने से पहले रोज़ी ने उसे अपने साथ चलने का प्रस्ताव भी दोहराया था। ''तुम चाहो तो अल्मोड़ा शहर में भी आकर रह सकती हो। पर यहाँ रहने पर तुम्हें एक-एक क़दम फूँक-फूँककर धरना होगा। अब तुम पीली कोठी की पन्नाबाई नहीं, कली की माँ हो।
''मैं यहीं रहूँगी रोजी, मुझे तो अब लगने लगा है जैसे विधाता ने इस अरण्यस्थित 'देवदार' की सृष्टि मेरे ही लिए की थी।''
कुमाऊँ के नरभक्षियों को पिस्तुओं की भाँति मसलने वाले प्रख्यात शिकारी कोरबेट का बनाया वह बँगला उसी के दुस्साहसी व्यक्तित्व का आवास बनने के उपयुक्त था। सच्चा होते ही वहाँ सियारों की पूरी बिरादरी जुट जाती। पहाड़ में मोटे अजदहे नहीं होते, यही रोज़ी सुनती आयी थी। पर एक दिन वह पन्ना के साथ टहलने निकली तो रोडीडेण्ड्रान के मोटे तने से लिपटे विकराल पायथन को देखकर थर-थर काँपने लगी थी। पेड़ के तने से भी मोटी चिकनी देह को वह पहाड़ की क्षणिक धूप-छाँह में उलट-पुलटकर सुखा रहा था।
''मैं तुम्हें यहाँ नहीं छोड़ सकती पन्ना, बाप रे बाप! लगता है, जिम कोरबेट अपनी पुस्तक के जीते-जागते सब 'इलस्ट्रेशन्स' यहीं छोड़ गया है!''
कोई भी चौकीदार वहाँ आने को राजी नहीं हुआ था।
''नहीं, मेमसाहब, कोरबेट साहब के बँगले में तो पाँच ही बजे से भालू नाचने लगते हैं, और वैसे डराना तो नहीं चाहिए,'' बूढ़ा माली रोज़ी को बँगले का पूरा अभिशप्त इतिहास बता गया था, ''बँगला भुतहा भी है। एक बार सौ रुपये महीने पर मैं यहाँ की चौकीदारी करने को आया। एक पंजाबी ने यहाँ बँगला खरीदा था। बोला, जिस कमरे में जैसे चाहो वैसे रहो, कोई काम न धन्धा, बस दिन-भर खाना-पीना और सोना। सिर्फ़ दो महीने के लिए गरमियों में सूद साहब आता, पर बाप रे बाप, पहले ही दिन रात के नौ भी नहीं बजे थे कि हाथ में बन्दूक लिये शिकारी साहब का
परेत और पीछे-पीछे चिंघाड़ते तराई के हाथी, हिमालय के भालू और कुमाऊँ के आदमखोर! कौन करेगा इस बँगले की चौकीदारी।''
पर पन्ना की निर्भीक हँसी देखकर रोज़ी दंग रह गयी।
''क्यों घबरा रही हो रोज़ी! कैसे-कैसे अकड़बाज साहब लोगों से पाला पड़ चुका है, तुम निश्चिन्त रहो, मैं खूब मजे से रह पाऊँगी।''
सचमुच ही उस बीहड़ वन में पन्ना ने सुदीर्घ दस वर्ष काट दिये। न वह किसी से मिलती-जुलती, न भूल से भी किसी को चिट्ठी लिखती। कभी-कभी रोज़ी का मित्र, बूढ़ा फ्रेंच पादरी बिशप लियाँ, उससे मिलने चला आता। महीने में एक बार रोज़ी आकर उसके साथ द्रो-तीन दिन की छुट्टियाँ मना जाती।
''इस वर्ष कली सीनियर कैम्ब्रिज कर लेगी। और मैं चाहती हूँ पन्ना, कि अब वह तुम्हारे साथ रहकर यहीं पढ़े,'' रोज़ी ने कहा था। वह कली की प्रगति से बहुत सन्तुष्ट नहीं थी। देखने में असाधारण रूप से सुन्दरी होने के गर्व का विष ही शायद उस दम्भी लड़की की रक्त-मज्जा में घुल गया था।
कुछ ही दिन पहले रेवरेण्ड मदर ने रोज़ी को एक लम्बी चिट्ठी लिख भेजी थी-''यह तुम्हारी वार्ड न होती, तो मैंने इसे कब का हटा दिया होता। लड़की की बनने कँवरने में जितनी रुचि है, उसकी आधी भी यदि पढ़ने में होती, तो यह हमारे कान्वेण्ट का नाम उज्ज्वल करती। ऐसी प्रखर बुद्धि की छात्रा हमारे कान्वेण्ट में अरसे से नहीं आयी। पर इस नन्हें प्रखर मस्तिष्क की कुटिल चाल देखकर मैं सहसा विश्वास ही नहीं कर पाती कि यह भोली वर्जिन मेरी के-से चेहरे वाली बच्ची ऐसा कर कैसे सकती है? हमसे कहीं यह त्रुटि हो गयी? क्योंकि अपने बचपन से लेकर अपनी किशोरावस्था तक की एक-एक सीढ़ी यह हमारी ही अँगुली पकड़कर चढ़ी है। मुझे लगता है, जैसा अस्वाभाविक रूप से प्रखर इसका मस्तिष्क है, वैसी ही दैवी सूक्ष्म दृष्टि भी इसे विधाता ने दी है। शायद उसी अद्भुत शक्ति से इसने जान लिया है कि इसके जन्म के पीछे कोई रहस्य अवश्य है। जब यह छोटी थी, तब बार-बार मुझसे पूछती थी-''मदर, सबके डैडी स्कूल स्पोर्ट में आते हैं। हर बार मेरी मम्मी ही अकेली क्यों आती हैं?''

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