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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''मैं उसे क्या उत्तर दे सकती थी? मैंने तुमसे उसी दिन कहा था रोजी, एक-न-एक दिन यह प्रश्न वह अवश्य पूछेगी। फिर धीरे-धीरे उसने जैसे स्वयं ही उत्तर पा लिया है, एक बात और भी है, मिसेज़ मजूमदार से उसे सब कुछ मिला, थैला-भर चॉकलेट, पुस्तकें, फ्रॉक, गुड़िया और भी बहुत कुछ, पर एक ही वस्तु उसे तुम्हारी सखी नहीं दे पायी-माँ का प्यार। घर जाने की होम लीव मिलने पर भी वह विचित्र लड़की घर नहीं जाना चाहती। अपने जन्म की अनजान पिता की इस उलझी गुत्थी को सुलझाना चाहती है, पर सुलझा नहीं पाती। और वही तनाव इसे अस्वाभाविक रूप से क्रूर, हृदयहीन, विद्रोहिणी बना रहा है। कई बार इसके बक्से से
साथ की लड़कियों की घड़ियाँ बरामद हुई हैं। लिपस्टिक, रूज, विदेशी परफ्यूम, पता नहीं कहां-कहां से यह जुटा लेती है। मुझे लगता है इस सुन्दरी कठपुतली की कमर में बंधे दो धागों में से एक मेरे हाथ में है और दूसरा स्वयं विधाता के। चाहने पर भी उसे खींचकर न तुम इसे अनुशासन में बाँध सकती हो, न मैं, और न इसकी माँ। इस वर्ष मेरा कठिन दायित्व तुम्हारे और इसकी माँ के कन्धों पर पड़ रहा है, ईश्वर तुम्हें धैर्य और इसे सद्बुद्धि दे।
-रेवरेण्ड मदर''

पत्र पढ़कर रोज़ी ने फाड़कर फेंक दिया। पन्ना से उसने कुछ भी नहीं कहा। क्या पता इसी पत्र को पढ़कर माँ-बेटी के बीच पल-पल बढ़ता जा रहा मनोमालिन्य और भी बढ़ उठे। वर्षो पूर्व की पार्वती की लोलुप दृष्टि की स्मृति रोजी को दंश दे उठी। मेज पर लापरवाही से पड़ा उसका रुपया, टार्च, रोगिणियों की सुप्तावस्था में गले से ग़ायब हो गयी चाँदी की जंजीर; यहीं तक कि रोगियों के कोटों के बटन और सेफ्टीपिन भी वह चतुर दस्युकन्या एक आलिंगन में साफ़ कर देती थी। और जब अपराधिनी को पकड़कर रोज़ी के पास लाया जाता, वह अपनी निर्दोष हँसी और निष्पाप बड़ी आँखों की मूठ चलाकर सबको परास्त कर देती।
''हाय राम, मेम साहब! मैं भला क्या करूँगी चाँदी की जंजीरों का, लो तलाशी ले लो ना!'' और कड़ी-सेकड़ी तलाशी लेने पर भी एक धेला भी कभी बरामद नहीं हो पाता था।
आज उसी पार्वती का इतिहास क्या उसकी पुत्री दोहराने लगी थी! कई बार रोज़ी के जी में आया, वह पन्ना से सब कुछ कह दे। पर क्या कहने पर भी पन्ना उसे साध पाएगी?
बोर्डिंग से कली अपनी पढ़ाई समाप्त कर लौटी, तो उसने आते ही मुँह फुला लिया। ''इतनी दूर से भला कोई रोज नीचे उतर सकता है? पता नहीं तुम यहाँ कैसे अकेली रह जाती हो, माँ! मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मैं फ़ैजाबाद चली जाऊँगी।''
''फैजाबाद!'' आश्चर्य से पन्ना उसे देखती ही रह गयी थी। ''वहाँ कौन है भला?''
''वाह, विवियन के पापा वहाँ के डी. एम. हैं। खूब मज़ा आएगा। हम दोनों पापा के साथ दौरे पर जाएँगी। उसके पापा शिकार के भी शौकीन हैं, लिखा है हमें डक शूटिंग के लिए भी ले चलेंगे!''
पन्ना स्वभाव से ही शान्त थी, पर उस उद्दण्ड किशोरी की मनमानी योजना सुनकर वह बौखला गयी, ''कली', जिस-किसी से ऐसे वायदे तुमने कर कैस लिये? कौन है तुम्हारी यह विवियन, और कौन हैं उसके पिता? ऐसे अनजान लोगों के बीच मैं तुम्हें क्या कभी भेज सकती हूँ?''

''अच्छा माँ, विवियन के पिता कौन हैं, यह तो तुम नहीं जानतीं, पर मेरे पिता कौन हैं, तुम यह भी क्या नहीं जानतीं?''
सामने कुरसी पर बैठी यह अवाध्य उद्दण्ड किशोरी दोनों पैर कुरसी पर खींचकर दुटता से मुसकराने लगी।
पन्ना का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। क्या किसी ने कुछ कह दिया था इस छोकरी से? पर कहेगा कौन? उसके जीवन का रहस्य केवल चार ही प्राणियों तक सीमित था, रोज़ी, स्वयं वह, रेवरेण्ड मदर और रोज़ी की बहन मदर ओनीला। उन चारों में से कोई भी कभी उस रहस्य को प्राण रहते उद्घाटित नहीं होने देगी। तब?
''कली, क्या तुमने स्कूल में यही सब सीखा है? गुरुजनों से कैसे बोलते हैं, यह क्या अब तक नहीं सीख सकी तुम?''
''पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो माँ, आज मैं बिना सुने नहीं उठूँगी। रोज़ी आण्टी से पूछना व्यर्थ है। बड़ी घुन्नी है बुढ़िया। साथ की लड़कियों के अलबम देखती हूँ तो जल-भुनकर रह जाती हूँ। एक-एक पेज पर उनके माँ-बाप जड़े हैं, और तुम्हारे कमरे में तो आज तक मैंने अपने अभागे बाप की एक भी तसवीर नहीं देखी।
''कृष्णकली मजूमदार, नाम तो तुमने इतना सुन्दर रख दिया माँ, पर यह मुझे मजूमदार बनाने वाला आखिर है कौन?''
''कली,'' पन्ना ने बड़े साहस से उसकी बड़ी-बड़ी विद्रोही आंखों की ओर अपनी गम्भीर दृष्टि निबद्ध कर दी,'' तुम्हारे नाम के पीछे कोई मरीचिका नहीं है, तुम्हारे पिता से मेरी नहीं बनी और हम दोनों अलग हो गये। वह अब कहीं हैं, क्या करते हैं, मैं कुछ नहीं जानती। तुम आज तक बोर्डिंग में थी, इसी से न कभी यह प्रसंग उठा, न उठाया गया। पर कली, सच कहना बेटी, क्या मैंने कभी तुम्हें पिता का अभाव खटकने दिया? कौन-सी ऐसी चीज़ थी, जो तुमने माँगी और मैंने नहीं दी?

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