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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


दूसरे दिन उठी तो पन्ना सामान बांध चुकी थी। गैरेज में दो-दो मोटरें खड़ी थीं, पर पन्ना ने ताँगा मँगवा लिया है, यह भी वाणी सेन उससे आकर कह गयी थी।

''बड़ी दी, छोटी दी बिना कुछ खाये-पिये ही चली जा रही हैं,'' डरती-डरती वह कह गयी थी।
''मरने दे अपनी छोटी दी को, मैंने क्या दुनिया-भर के भिखारी-कोढ़ियों को जिमाने का ठेका लिया है?'' माणिक के पुरुष कण्ठ की गुरु गर्जना, दो-तीन दीवारों को भेदकर, पन्ना के कानों से टकरा गयी थी। व्यंग्य रोज़ी पर था, यह वह समझ गयी।
बड़ी दी जानती थी कि रोज़ी कुछाश्रम की डॉक्टरनी है।
एक छोटे से सूटकेस में बड़ी दी के कली को दिये गये बहुमूल्य उपहार भरकर पन्ना फिर भी कली की अँगुली पकड़े बड़ी दी के कमरे में पहुँच गयी। बहुत बड़े आईना-जड़े पलँग पर बड़ी दी चुपचाप लेटी थी। यह पलँग अम्मा का था। और एक क्षण को पन्ना थमककर, खड़ी रह गयी। उसे लगा जैसे यह बड़ी दी नहीं, स्वयं अम्मा ही लेटी हो। वैसी ही माथे पर हाथ धरकर लेटने की अम्मा की चिर-परिचित मुद्रा! चेहरा उतरकर छोटा-सा निकल आया था। रेशम की गुलाबी नाइटी में बड़ी दी का सफ़ेद मक्सन-सा गोल चिकना शरीर और भी पृपुल लग रहा था। दोनों आँखें सूनी थीं। कितनी बीमार लग रही थी बड़ी दी! सहसा पन्ना का चित्त अनोखी ममता से भर आया। ''बड़ी दी, मैं जा रही हूँ'' उसने धीमे स्वर में कहा। न जाने किस दिवा-स्वप्न में डूबी माणिक चौंककर उठ बैठी।
''यह तुम्हारे दिये गहने हैं,'' उसने चुपके से सूटकेस माणिक के पलँग के नीचे खिसका दिया। बड़ी दी का चेहरा विवश हो गया। वह एक शब्द भी नहीं बोली।
''यह कली आयी है बड़ी दी, तुम्हें प्रणाम करने,'' सहमी-सी कली को पन्ना ने बड़ी दी के सामने ढकेल दिया।
''निकल जा मेरे कमरे से'' बड़ी दी पहली बार गरजी। पन्ना सहमकर पीछे हट गयी। तमतमाये चेहरे पर सहमकर अंगारे-सी दहकती बड़ी दी की आंखें जैसे फटकर बाहर निकलने को उद्यत हो गयीं। कली सहमकर बाहर भाग गयी थी। अकेली पन्ना चुपचाप खड़ी रह गयी।
''जिसने तुझे छाती से लगाकर पाला, तेरे लिए सजी-सजायी दुलहन की डोली को लात मारकर ठुकरा दिया, उसी को तू नागिन-सी डँसकर अब प्रणाम करने आयी
है?
''ठीक कहती थी अम्मा। रण्डी की औलाद अपनी सगी माँ की भी सगी नहीं होती। फिर तू तो उस फिरंगी की औलाद है जो अपने सगे बाप को भी बूढ़ा होने पर लात मार वाहर कर देता है।''
''खबरदार जो इसके बाद मैंने तेरा और इस बंगाली की छोकरी का मुँह देखा। दफ़ा हो जा, समझी?''
माणिक उत्तेजना से बुरी तरह हाँफने लगी थी। लग रहा था उसके अन्तर में धधकती क्रोध की भट्ठी का अदृश्य धुआं उसके कानों से भी निकलने लगा है।
''रुक जा,'' बाहर जाती पन्ना बड़ी दी की गर्जना सुनकर फिर रुक गयी।
माणिक के कठोर आदेश की गर्जना सुनकर अपने-अपने कमरों से निकली कई लड़कियाँ एक साथ फिर डरी चुहियों-सी दुबक गयीं।
''मैं तेरा और तेरी मेम का पूरा सामान देखूँगी। बिस्तरा भी खुलवाना होगा, समझी? इन फिरंगियों की चालाकी मैं खूब समझती हूँ।''
पन्ना का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। क्या यह सचमुच सेही बड़ी दी कह रही थी। उस पर अविश्वास? जिस पन्ना ने कभी बड़ी दी का धेला भी नहीं छुआ, जो चलते समय बड़ी दी का दिया पन्ने का सतलड़ा हार तक खोलकर कली के गहनों के साथ लौटा गयी है, उसी छोटी बहन की तलाशी लेगी बड़ी दी? क्या कहेंगे पुराने नौकर-चाकर, क्या कहेंगी वाणी सेन, मैगी, लिबी और सोनिया, लिज?
सामान ताँगे पर लद चुका था पर कस्टम के हृदयहीन अधिकारियों की ही भाँति बड़ी दी ने उसकी एक-एक साड़ी को झटक-झटककर फैला दिया। वहाँ था ही क्या? वाणी का दिया कली के अन्नप्राशन का सोने का गहुवा मंजीर-सा बजता-ठुनकता, लुढ़कता चला गया तो पन्ना ने उठा लिया। सब लड़कियाँ बड़ी दी के भय से सहमकर परदों से झाँक रही थीं, अकेली वाणी वहीं पर खड़ी थी। उसके जी में आ रहा था माणिक को झकझोर-कर रख दे।
''वाणी, यह गहुवा भी तुम रख लो,'' पन्ना ने गहुवा वाणी की ओर बढ़ाया तो अब तक होंठ काटकर रुलाई रोकती वाणी उससे लिपट गयी।
''मरे को क्या मारती हो छोटी दी! मैं इसके बिना कैसे रहूँगी यहाँ,'' वह बिलखने लगी।
सदा चुपचाप रहने वाली शान्त प्रकृति की सौम्या पन्ना वाणी की एकमात्र सखी थी। फिर जब से कली आयी थी, वाणी ही एक प्रकार से उसकी माँ बन गयी थी। छोटी दी से छीन-झपटकर वह कली को अपने कमरे में उठा लाती। वह उसके मलिन जीवन-क्षितिज की एकमात्र क्षीण रेखा थी। कभी-कभी कमरा बन्द कर वह अपना स्तन उन क्षुधातुर नन्हे अधरों से लगा देती, अबोध कली कभी ऊर-ऊर उसे देखती, फिर सूखे स्तन से चिपट जाती। वाणी को लगता, नन्ही कली की समस्त स्फूर्ति उसके
प्राणों में समा गयी है। जो सुख उसे माणिक की सम्पन्न पीली कोठी में कभी नहीं मिला था वह उसे कली का क्षणिक सहवास पल-भर में दे गया था। कभी वह उसे गाल से चिपकाये, मीठी-मीठी लोरियाँ गीता, कभी नीले आकाश की ओर देखती, छुमक-छुमककर हाथ-पैर फेंकती कली की बालक्रीड़ा देखकर एकान्त में ही आनन्द-विभोर हो उठती। आज वही कली मृगतृष्णा की-सी क्षणिक बहार दिखाकर उससे सदा के लिए बिछुड़ी जा रही थी। वह जानती थी कि कली अब लौटकर कभी नहीं आएगी। मनोमालिन्य की लोहे की दीवार दोनों बहनों के बीच अभेद्य दृढ़ता से खड़ी हो गयी थी, माणिक की स्वार्थपरता को वह कई बार परख चुकी थी। माणिक प्राण रहते कभी भी नेकी कर दरिया में नहीं डाल सकती थी। बड़ी दी की लोलुप दृष्टि क्या वह कई बार सुन्दर कली के एक-एक अंग पर निबद्ध नहीं देख चुकी थी?

''पन्ना, गाड़ी का समय हो गया है, अब चलो,'' रोज़ी ने कहा और पन्ना ने अपने को वाणी के बाहु-बन्धन से छुड़ा लिया। एक बार उसने बड़ी दी की ओर बड़ी आशा से देखा। क्या पता बड़ी बहन स्नेहपूर्ण आश्वासन देकर फिर कह उठे, 'जाने दे पन्ना, पता नहीं गुस्से में तुझसे क्या-क्या भला-बुरा कह गयी, न हो तो कली को रोज़ी के साथ भेज दे, तू मत जा'।''
पर माणिक की आँखों से अभी भी चिनगारियाँ छूट रही थीं।
ताँगे में बैठकर पन्ना ने अन्तिम बार पीली कोठी को देखा। कैसी अद्मुत विदा की बेला थी! पाप से विदा, दुराचार से विदा, निर्लज्जता से विदा, पाखण्ड से विदा! गुलाबी नाइटी में अर्द्धनग्ना माणिक, कुरसी के हत्थे पर माथा टेक सिसकती वाणी सेन, रेशमी परदों से झाँकती सोनिया, लिज, मैगी और पिंजरे में बन्द, सींकचों में चोंच मारता अफ्रीकी काकातुआ! उसके प्रेमी का एकमात्र वही स्मृति-चिह्न तो रह गया था। कितने वर्ष पूर्व उसके जन्मदिन पर विद्युतरंजन सोने के पिंजरे में बन्द कर वह अमूल्य भेंट उसके लिए नैरोबी से ले आये थे। पाँवों में बँधी थी सोने की पतली-सी जंजीर और उसी को थामकर विद्युतरंजन बड़े खिलवाड़ में उसे कन्धे पर चढ़ाकर दरबार में जाते थे।

आज पन्ना चलने लगी तो काकातुआ ने तूफ़ान मचा दिया। कें कें कें कें, जैसे कोई उसकी गरदन मरोड़ रहा हो। क्या पशु-पक्षियों को भी विधाता ने ऐसी अलौकिक सूक्ष्म दृष्टि दी होगी? क्या वह जान गया होगा कि उसकी स्वामिनी अब कभी लौटकर नहीं आएगी? पन्ना ने धीरे-धीरे ओझल होती पीली कोठी को अन्तिम बार देखकर, आँखें बन्द कर लीं। स्मृतियों का सागर उमड़ उठा-जब वह, हीरा और माणिक उस झूले पर पेंग लेती-लेती आकाश छू लेती थीं, जब उस बड़े-से जामुन के पेड़ से रसीले जामुन गिरा-गिराकर, लोटे में हिला नमक-मिर्च से सान, माणिक गिन-गिनकर बहनों को जामुन बाँटती थी, जब तीनों बहनों के पैरों से बँधे घुँघरुओं की मीठी झनकार से पीली कोठी गूँज उठती और मखमली कुरसी में बैठी मुनीर अपनी नृत्य-प्रवीणा पुत्रियों
को बाँहों में भर-भरकर चूम लेती थी। बड़ी दी की कीर्तिस्तम्भ पीली कोठी आकाश में गर्वीली गरदन उठाये कुछ देर तक दिखती रही, फिर ओझल हो गयी। रोज़ी चुपचाप बैठी थी। अब तक वह एक शब्द भी नहीं बोली थी। धीरे-से उसने पन्ना का हाथ पकड़कर थपथपा दिया। अचानक उस मैत्रीपूर्ण स्पर्श ने पन्ना की मूक वेदना को प्रगल्भ वना दिया। चेटा करने पर भी वह अपनी सिसकी को नहीं घुटक पायी।

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