नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
''चुप करो बड़ी दी, रोज़ी सुनेगी तो क्या कहेगी,'' पन्ना ने द्वार भिड़ा दिया
था।
''भाड़ में जाये तेरी रोज़ी। एक-से-एक ग्राहक उठकर लौट जाते थे, पर मजाल है
जो मैंने कभी तुझसे कुछ कहा हो। फिर एक दिन तेरे गले में यह ढोल लटकाकर
नासपीटा भाग गया, तो तू इतनी बड़ी बात मुझसे ही छिपा गयी! जिसके आँचल से मैं
आँखों की तिजोरी की चाबियाँ लटकाकर गयी, वही मुझसे धोखाधड़ी कर स्वयं सटक
सीताराम! और फिर जब नाक कटवाकर लौटी तो किसने शरण दी तुझे? तब कहाँ थी यह
रोज़ी?''
दोनों बहनों में आज तक कभी ऐसे उच्च स्वर में बहस नहीं हुई थी। पन्ना ने
देखा, मैगी, वाणी, सोनिया, लिज, सब ऊपर की मंजिल पर झुण्ड बनाकर, एक-दूसरे
पर गिर पड़ रही थीं।
''क्या सीन क्रीएट कर रही हो बड़ी दी। कली मेरी लड़की है, मैं जहाँ चाहूँ उसे
भेज सकती हूँ।''
''अच्छा? जब मरियल-सी उस कलूटी को लेकर यहाँ आयी थी, तभी क्यों नहीं भेज
दिया उसे गिरजे में? कलूटी ईसाइनों के बीच में ठीक लगती। तब उसकी औक़ात थी
हमारे बीच रहने की? छूने में भी घिन लगती थी हरामजादी को...
''पन्ना और नहीं सुन सकी। क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठा। वह पता नहीं क्या
कहने जा रही थी कि परदा उठाकर शान्त मूर्ति रोज़ी खड़ी हो गयी।
''पन्ना माई प्रेशियस,'' उसने हँसकर कहा, ''तुम्हारी बहन तुम्हारी कली को
कितना चाहती हैं। शायद उसे स्कूल भेजने में इसी से उन्हें इतना कष्ट हो रहा
है। कोई बात नहीं, मैं कली को नहीं ले जाऊँगी।''
''तुम लै जाओगी,'' तड़पकर माणिक रोज़ी की और मुड़ गयी, ''कली को ही नहीं, उसकी
माँ को भी। मैंने आज तक आस्तीन में साँप पाला था, यही समझकर सन्तोष कर
लूँगी। फिरंगी की दोगली बिटिया भला मेरी सगी होगी? इसी से तो
आज अपनी ही बेवफ़ा कौम का दामन पकड़कर चल दी है।''
''ठीक है बड़ी दी, इतना चीखने-चिल्लाने से गला बैठ जाएगा। तुम्हें आज रात की
बैठक का ध्रुपद भी तो अब अकेले ही गाना होगा।'' मर्मस्थल पर तीर त्हा अचूक
निशाना साध पन्ना रोज़ी का हाथ पकड़कर बाहर निकल गयी।
यही तो बड़ी दी की एकमात्र दुर्बलता थी। पन्ना के बिना उसके सधे कण्ठ का
सँवरे से सँवरा आलाप भी बेसुरा होकर बिखर जाता था। फिर उस दिन की बैठक क्या
ऐसी-वैसी थी? संगीत का अनोखा जौहरी स्वयं सीप के मोती बीनने आ रहा था। क्या
कहेगी अब नवाब शमशुद्दीन से? बयाना भी तो पहले ही ले चुकी थी।
इधर बढ़ते रक्तचाप ने हृदयहीन शत्रु की भाँति उसकी गरदन दबोच ली थी। कई बार
जोंकें लगवा-लगवाकर सेरो खून निकलवा चुकी थी। फिर भी जब देखो, तब नाक का
गुस्सा होंठों पर उतर आता और जो जी में आता, वही बकने लगती। पर करती भी
क्या? क्या पन्ना ने उसे यह दूसरी बार धोखा नहीं दिया था?
एक बात और भी थी। ज़माना देखते-ही-देखते बदल रहा था। जिन लड़कियों को वह जैसे
चाहे नचा लेती थी, उन्होंने अब दुष्टा मैगी के संरक्षण में एक छोटा-मोटा
यूनियन बना लिया था। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी देनी होगी। पर उस दिन भी
उन्हें दिन-भर का वेतन देना होगा। उस पर हरामजादियाँ कैसी छुट्टी मनाती
हैं, खूब समझती थी माणिक!
इधर-उधर घूम-घामकर सौन्दर्य की फेरी लगाती छोकरियों को वह एक-दो-बार रँगे
हाथों पकड़ भी चुकी थी। जब तक गोरे फौजियों की टुकड़ी छावनी में रहेगी, उन
फेरी लगानेवालियो की बिक्री धड़ाधड़ होती रहेगी, और जब तक मैगी उनकी हैड बनी
रहेगी, तब तक वह उनमें से एक से भी कैफ़ियत नहीं माँग सकेगी, यह भी वह खूब
समझती थी।
इसी से सुन्दरी कली को वह एक सुरक्षित जीवन बीमे की अटूट धनराशि के रूप में
ही देखने लगी थी। यह ठीक था कि लड़की ने दुर्भाग्य से माँ का रंग नहीं पाया
था, पर उसका अपूर्व अंग सौष्ठव, चपल दृष्टि, खमार चेहरे पर पड़ रही समय से
पूर्व आ गये अप्रत्याशित यौवन-अतिथि की स्पष्ट छाया उसे दिन-प्रतिदिन
आश्वस्त करती जा रही थी।
सुरीले कण्ठ में स्वयं सरस्वती उतर आयी थी। कभी-कभी माँ की गायी ठुमरी को
वह ऐनमेन नक़ल उतार कर रख देती-
गोरी तोरे नैन-
बिन काजर कजरारे।
और सुनने वाले गुणी पारखी दाँतों तले अँगुली दबा लेते। उस नन्हीं
स्वर-लयनटिनी की मृगी-सी भयत्रस्त आँखों के सहारे ही वह अपना बुढ़ापा काट
सकती थी।
विधाता प्रदत्त इस अनोखे मूलधन को वह किसी चतुर वणिक्पुत्र की ही भाँति,
चक्रवृद्धि ब्याज पर चढ़ाकर, पल में चौगुना बढ़ा लेगी। न रहे सोनिया, लिज, न
रहे वाणी सेन और लिवीराना, एक अकेली कली ही झूम-झूमकर उसके नन्दन वन की
शोभा द्विगुणित कर देगी। पर उसी कली का मूल्य क्या वह खूसट मेम पन्ना के
कानों में आकर फुसफुसाकर गयी थी? सारी रात माणिक सो नहीं पायी।
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