नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
''इसीलिए मैं तुमसे इसे माँगने आयी हूँ पन्ना। मैं चाहती हूँ इसे नैनीताल
के कॉन्वेण्ट में उन तापसियों के बीच ले जाकर छोड़ दूँ, जहाँ पाप या कलुष की
छाया भी नहीं पड़ सकती।''
''ओह रोज़ी, क्या तुम सोचती हो कि पीली कोठी में रहने पर मैं इसे अपने ही
रंग में रँग दूँगी।''
''पन्ना, माई प्रेशियस,'' रोज़ी कुरसी पर बैठकर हाँफने लगी थी। इतनी सीढ़ियाँ
एक साथ चढ़ने-उतरने का उसे अभ्यास नहीं था। ''कोयले की कोठरी से क्या कोई भी
बिना कालिख लिये लौट पाता है? तुम घबड़ाती क्यों हो पन्ना, जिसने तुम्हारा
स्तनपान किया वह कहीं रहे, तुम्हें कग सहज ही में भूल पाएगी? मैं अभी दो
दिन यहाँ रहूँगी, इस बीच तुम स्वयं सोच-विचारकर निर्णय ले सकती हो।''
पन्ना ने वाणी को पहले ही समझा-छुझा दिया था कि कली को वह स्वयं तैयार कर
मेम-साहब से मिलाने लायेगी। नित्य कली माँ का नाश्ता निबटने पर रेशमी
चूड़ीदार पाजामा और कमीज़-ओढ़नी में, इत्र में बसी, सजी-धजी गुड़िया-सी उससे
मिलने आयी थी। दोनों बहनों के बीच उसकी छोटी कुरसी लगी रहती। बड़ी माँ के
साथ नाश्ता कर वह आया के साथ घूमने जाती। लौटने पर मौलवी साहब उर्दू पढ़ाते
और मैगी आण्टी अँगरेज़ी। फिर छोटी माँ उसे स्वयं एक घण्टे तक कलक नृत्य की
कठिन घुरनियों में चरखी-सी घुमाती रहती।
''एक-दो दिन कली का रियाज़ बन्द रखना होगा बड़ी दी, रोज़ी को शायद यह सब अच्छा
नहीं लगेगा,'' खिसियाये स्वर में पन्ना ने बड़ी दी से कहा तो वह आश्चर्य से
उसे देखती रही थी।
''क्यों दो दिन के लिए कहीं से तेरी रोज़ी आयी है तो लड़की का नाचनागाना ही
बन्द कर देगी? लड़की तेरी है या उसकी? तुझे पता है पन्ना, कच्ची मिट्टी को
ही चतुर कुम्हार जैसा चाहे वैसा मोड़ सकता है, पक्की मिट्टी को नहीं। एक बार
इन मिशनरियों के हाथ में लड़की सौंप दी तो समझ लेना, गयी। वह उसे अपनी ही
विद्या सिखाएँगी, हमारी वित्कीज़ नहीं भूल गयी आपा को?''
बिल्कीज़ मुनीर की बड़ी बहन की लड़की थी। देखने में उजली-चिट्टी मेम, पर एकदम
दुबली-पतली। पता नहीं किसने बिल्कीज की माँ से कह दिया कि भक्तिन स्कूल में
भेजने पर, उसकी बिटिया निखर आएगी। शायद स्वयं बिल्कीज़ के विदेश। पिता का भी
आग्रह था। चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् बिल्कीज़ घर लौटी तो स्वयं उसकी
माँ ही उसे नहीं पहचान पायी और फिर क्या बिल्कीज़ उसके साथ रहना चाहती थी?
न वह मिर्च-मसाले का सालन खा पाती, न रोटी-चपाती। काँटे-छुरी के बिना उसके
कण्ठ के नीचे ग्रास नहीं उतरता। लाख चेष्टा करने पर भी उसकी माँ न उसे गाना
सिखा पायी, न नाच। दिन-रात माँ-बेटी में खनकती रहती और एक दिन
बिल्कीज़ किसी मेल गड़िा के ऐंग्लो इण्डियन ड्राइवर के साथ भाग गयी थी।
''तुम भूलती हो बड़ी दी,'' पन्ना ने कहा, ''रोज़ी की ऐसी कोई शर्त नहीं है।
बिल्कीज़ आपा की मेम ने तो पहले ही लिखत-पढ़त करवा ली थी कि पढ़ाई पूरी होने
तक उसे एक बार भी घर नहीं आने देंगी। गर रोजी का कहना है, कली हर छुट्टी
में यहाँ आ सकती है और चाहने पर मैं भी उससे मिलने जा सकती हूँ। और फिर
क्या तुम सोचती हो, हमें इस जिन्दगी में बड़ा भरिा सुख है जो कली को भी उसी
जिन्दगी के त्निए तैयार करूँ?''
''कहती क्या है छोटी, तुझे यहाँ दुःख है? कौन-सी ऐसी तकलीफ़ है, जरा मैं भी
तो सुनूँ? क्या मैंने कभी कोई ज़बरदस्ती की है? जब वह मुँहजला मजुमदार
महीनों यहाँ बिना कुछ दिये मेरी हज़ार-हज़ार रुपये की बोतलें खाली करता पड़ा
रहता था, तब भी मैंने कुछ नहीं कहा तुमसे...''
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