नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
''कितना सुन्दर कोठी है?" रोजी ने प्रशंसापूर्ण दृष्टि से पन्ना के कमरे की
स्वच्छ विदेशी सज्जा को देखकर कहा।
''सुन्दर? तुम भी इसे सुन्दर कह सकती हो रोज़ी?'' आश्चर्य से पन्ना उसे एकटक
देखने लगी। क्या ताना मार रही थी रोज़ी?
''क्यों नहीं पन्ना, बनाने वाले ने हर चज़ि सुन्दर नहीं बनायी है क्या?'' वह
अपनी स्वच्छ दन्त-पंक्ति दिखाकर हँस उठी।...मुझे तो इस संसार में आज तक सब
सुन्दर-ही-सुन्दर दिखा है डार्लिग! पर यह तो बताओ, तुमने उस सुन्दर तोहफे
को कहीं छिपाकर रख दिया है, जिसे देखने में इतनी दूर से भागती आयी हूँ।
''उसे मैं अपने कमरे में नहीं सुलाती। तिमंजिले में मेरी, हीरा और बड़ी दी
की पुरानी नर्सरी थी, वहीं सोती है। चलोगी क्या? सोयी होगी। दिन-भर शैतानी
करती, उछल-कूद मचाती रहती है। फिर थककर ऐसी चूर होती है कि सात ही बजे सो
जाती नर्सरी के कमरे में लगे नीले रेशमी परदों को हलके से उठाकर पन्ना रोज़ी
को भीतर ले गयी। पास के पलँग पर काली भुजंग-सी आया हथेली पर खैनी-चूना मल
रही थी। धोती जाँघों तक उठी थी, आँचल गोदी में पड़ा था। अचानक इतनी रात को
स्वामिनी को कमरे में देखकर वह हड़बड़ाकर उठने लगी।
''श्श'' पन्ना ने उसे हाथ से बैठने का संकेत दिया।
फलालेन की गुलाबी नाइटी में कली सो रही थी। एक हाथ गाल के नीचे था, दूसरा
छाती पर।
कैसी सलोनी सूरत थी! कौन कहेगा यह वही चूजे कीं-सी गर्दन है, जिसे पार्वती
ने क्रूरता से मरोड़कर दूर फेंक दिया था? क्या ये वे ही सूखे निर्जीव अधर
हैं, जिन्हें खोल-खोलकर बड़े यत्न से रोजी ने ब्राण्डी से रात-भर सिक्त किया
था? क्या यह वही नन्हा कलेजा धड़कता फलालेन की नाइटी को उठा-गिरा रहा है, जो
एक बार केवल एक नन्हे स्पन्दन से ही रोज़ी को आश्वासित कर पाया था?
रोज़ी चुपचाप खड़ी पिंजरा पलँग पर सोयी उस देवागना-सी सुन्दरी बालिका को एकटक
निहार रही थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। मानव को कैसा अपूर्व दैवी
शक्ति प्रदान की है उस सिरजनहार ने! मानव यदि किसी के प्राण ले सकता है तो
किसी को जीवनदान दे भी सकता है। इस नन्हीं बालिका को क्या सचमुच रोज़ी ने ही
जीवनदान दिया है?
वह जो इस सजे-सजाये कमरे के गुदगुदे पलँग में सोयी मीठे सपनों में डूबी पड़ी
है, उसका श्रेय-किरीट क्या स्वयं उस उदार पिता ने रोज़ी के माथे पर धर दिया
है?
''रोज़ी, अब चले, बहुत रात हो गयी है,'' धीमे से रोज़ी को टसकाकर पन्ना बाहर
खींच ले गयी।
''इट इज सो सिली ऑफ मी डार्लिग'' रोज़ी ने छाती से रूमाल निकालकर आँखें
पोंछी, नाक सिनकी और हँसकर पन्ना के हाथ थपथपाने लगी। हँसने पर रोज़ी का
चेहरा इसी भोली निर्दोष बालिका-सा लगने लगता था।
''पता नहीं क्या हो गया मुझे, पर उस सुन्दर बच्ची को देखकर क्षण-भर को मैं
विश्वास ही नहीं कर पायी कि यह वही मरी चुहिया-सी बच्ची है, जिसे मैंने जब
तुम्हारी गोदी में डाला, तो इतनी भी उम्मीद नहीं थी कि यह महीना-भर भी जी
पाएगी।''
''कितने यत्न से तुमने इसे पाला होगा पन्ना, मैं समझ सकती हूँ। नाक, आँख,
कुटिल ओठ, सब असदुल्ला पर गये हैं,'' रोजी फुसफुसाकर कहने लगी। ''लम्बी भी
कितनी है, एकदम पठान की बेटी है पन्ना। पर आँखें देख रही हो? ओह द पुअर
रैच! रोग से पहले उसकी आँखें कितनी सुन्दर थीं, और पलकें, ओह पन्ना, मैंने
ऐसी सुन्दर आँखें आज तक फिर नहीं देखीं। उसके हँसने से पहले उसकी बड़ी-बड़ी
आँखें हँसने लगती थीं। बोलने से पहले उसकी आँखें बोलती थीं और अब...''
रोज़ी सहसा स्वयं ही सहमकर चुप हो गयी।
''अब क्या रोज़ी?'' पन्ना साँस रोककर बैठ गयी।
''अब? अब वह अन्धी है पन्ना, उसका रोग अब अच्छी-से-अच्छी औषधियों से भी
मोर्चा लिये खड़ा है।'' रोज़ी का कण्ठस्वर भय से काँप उठा। पन्ना का गला सूख
गया। जीभ जैसे तालू में चिपक गयी।
''क्या तुम सोचती हो,'' वह रुक-रुककर पूछ उठी, ''कि कभी पिता के नाक-नक्शे
और माँ की बड़ी आँखों की यह अविकल प्रतिमूर्ति भी इस महारोग का शिकार बन
सकती है? क्या यह सम्भव नहीं है रोज़ी कि जिस विचित्र प्रकृति ने इसे पिता
का माथा, कद और रंग दिया है, माँ की बड़ी-बड़ी आंखें दी हैं, वह इसे माँ-बाप
का बड़ा रोग भो दे दे?''
''नहीं पगली'' रोज़ी ने पन्ना को बाँहों के आश्वासनपूर्ण घेरे में बाँध
लिया। ''फिर इसने तुम्हारी-सी स्वस्थ माँ का स्तनपान किया है। तुम्हें कभी
ऐसा कोई भय नहीं होना चाहिए। निश्चिन्त रहो पन्ना, तुम्हारी सुन्दरी बिटिया
को कभी इस रोग का भय नहा रहेगा, पर इसे एक भय सर्वदा रहे, यह मैं चाहती
हूँ। जानती हो किसका?''
''किसका रोज़ी?''
''उसका,'' आकाश की ओर अपनी गठिया से पंगु टेढ़ी अँगुली उठाकर रोज़ी सहसा
गम्भीर हो गयी। ''तुमने बाइबिल पढ़ी है ना पन्ना? उन दस कुछ रोगियों की कथा
याद है जिन्हें ईसु ने अपने दिव्य स्पर्श से रोग-मुक्त कर दिया था, पर उन
दसों में से केवल एक ही उसके पास कृतज्ञताज्ञान करने आया था। मैं चाहती हूँ
यह उस दस में से एक-सी ही कृतज्ञ बनी रहे।''
''उस महान् अदृश्य व्यक्तित्व के अस्तित्व को क्या यह यहाँ रहकर जान
पाएगी?''
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