नारी विमर्श >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास
चार
द्वितीय युद्ध की समाप्ति के साथ ही बड़ी दी का व्यवसाय बुलन्दी पर पहुँच
गया था। युद्ध में अनायास ही कमायी गयी ठेकेदारों की धनराशि की नहरें, एक
साथ ही पीली कोठी में आकर बहने लगी थीं। बड़ी दी की पूर्व-परिचिता, पाँच
वैकाई, अपनी खाकी मर्दानी वर्दियों को तिलांजलि दे, एक बार फिर पीली कोठी
के सुनहले पिंजर में, पालतू पढ़ी-पढ़ायी मैना-सी चहकने लगी थीं। पहले रविवार
को पीली कोठी दिन भर की छुट्टी मनाती थी। बड़ी दी अपनी सेवन सीटर में अपने
रंगीन दलबल को भरकर दूर-दूर तक घूमने निकल जातीं। कभी राजगृह, कभी राजमहल।
केसा ही सम्मानित अतिथि क्यों न हो, उसे रविवार को आने पर निराश होकर ही
लौटना पड़ता। पर अब रविवार को भी कोठी में मेले की-सी भीड़ रहती। क्या कहेगी
रोजी! वह तो इतवार को अखबार भी नहीं पढ़ती थी।इस सस्ते वातावरण में वह कली को देखकर क्या प्रसन्न होगी? क्रिसमस के दिन बड़ी दी की किरण्टियों ने पीली कोठी के गोल कमरे की छटा बदल दी थी
ऐसा उत्साह तो बड़ी दी ने कभी बकरीद पर भी नहीं दिखाया था। पता नहीं कहीं से मैगी एक छोटा-सा हरा पेड़ जुटा लायी थी। उस पर जगमगाते बिजली के हरे, पीले, नीले लट्टू क्रेप के लाल-पीले काग़ज़ों में लिपटे रेशमी रिबन से बँधे उपहार, जापानी कन्दील, अनोखी जगमगाहट से जगमगा रहे थे। एक ओर बड़ी मेज पर लिज और सोनिया मोमबत्ती-दानों में बड़ी-बड़ी मोमबत्तियॉ सजा रही थीं। आज उन्होंने बड़ी दी से विशेष अनुमति लेकर अपनी पूरी ऐंग्लो इण्डियन बिरादरी को आमन्त्रित किया था। वैसे बड़ी दी इस बिरादरी से दो गज की दूरी ही बरतती थी। पीली कोठी के अधिकांश ग्राहक, बँधे-बँधाये पुश्तैनी यजमानी निभाने वाले ग्राहक थे। इस ऊँचे तबक़े के अतिथियों से कभी किसी प्रकार की सस्ती ही-ही, ठी-ठी या ओछे आचरण की बड़ी दी को आशंका नहीं रहती थी।
''पीते भी हैं तो दे नो हाऊ टु कैरी देवर ड्रिंक्स,'' बड़ी दी कहतो, "और ये मरी इन अधकचरी मेमों के साहब, कोई इंजन ड्राइवर है तो कोई गार्ड। चाहते हैं कि मेरी लड़कियों को भी रेलगाड़ी के बेजान डिब्बों की ही तरह अपने साथ जैसे चाहे खींचते ले जायें। पर मैगी को अप्रसन्न भी नहीं कर सकती थी बड़ी दी। कन्धे पर सुनहले वालों के रेशमी पशम झुलाती, नीली आखों और चपल स्मित का जादू बिखेरती मैगी माणिक के रत्न संकलन का सबसे दामी रत्न थी। उसकी मुट्ठी-भर की कमर, पत्थर की मूर्ति की-सी ऐसी तराशी गयी देह, जिसका एक-एक सुगठित अंग सवासवा लाख का था, वास्तव में अपूर्व थी। उसकी रुचि को देखकर कभी-कभी माणिक दंग रह जाती। कभी चौदह आने गज की लाल छींट का ऊँचा, काला गोट लगा लहँगा और काठियावाड़ी कंचुकी पहनकर, हाथ में एक सामान्य-सा चाँदी का कड़ा और गले में हँसुली पहने गोल कमरे में उतर आती। नीली आँखों से मेल खाती नीले रँगे मलमल की अबरक से चमचमाती ओढ़नी फड़फड़ाकर एक साथ अपने कितने ही प्रेमियों के हृदय में दावानल-जैसा प्रज्वलित कर देती। कभी वह आती ठेठ विदेशी वेशभूषा में। टार्टन स्कर्ट के ऊपर महा-औदार्य से प्रदर्शित हाथी दाँत-सा शुभ्र कठोर वक्षस्थल, शंखग्रीवा पर पतली सोने की चेन में झूलता, नवरल का पेण्डेण्ट जो देखने वाले की दृष्टि को बरबस बाँधता अपने साथ खुले गले की क्रमश: नीचे उतरती आकर्षक घाटी की ओर खींच ले जाता था। मैगी सप्ताह में केवल दो बार पीली कोठी के गोल कमरे में उतरती थी।'' मैं स्वभाव से ही नाजुक हूँ माणिक,'' उसने अपनी सखी से आते ही कह दिया था, ''पर मैं तुम्हें इतना विश्वास दिलाती हूँ कि जितनी तुम्हारी लड़कियों एक सलाह काम करने पर कमाएँगी, उतना मैं एक ही दिन नीचे आने पर भी कमा लूँगी।''
ऐसी सोना उगलने वाली मशीन को भला माणिक क्या खो देने की मूर्खता कर सकती थी?
''मेरा पेशा कैसा ही क्यों न हो, मैं एक आदर्श क्रिश्चियन हूँ, यह तुम्हें मानना
पड़ेगा माणिक,'' मैगी के मर्दाने कन्धे गर्वीले बनकर और उन्नत हो गये। ''मैं हर इतवार को गिरजाघर जाती दूँ और हफ्ते की उन दो मनहूस रातों में जब मेरी एक साँस भी अपनी नहीं रह जाती, मैं समय निकालकर बाइबिल पढ़ ही लेती हूँ-इसी से मैं चाहती हूँ कि इस बार का हमारा क्रिसमस डिनर ऐसा हो कि मेरे अतिथि तुम्हारे खानसामा के हाथ चूम लें।'' अपनी भुवन-मोहिनी हँसी का अचूक बाण छोड़कर मैगी अपने कमरे में चली गयी थी।
क्रिसमस डिनर सचमुच में ऐसा था कि भारी खाने और महँगी शराब में डूबे मैगी के अतिथि घर लौटना भी भूल गये थे। कोई सोफ़े पर ही लदा पड़ा था, किसी की गरदन कुरसी के हत्थे पर लटकी थी, पाँच-सात अतिथि निर्जीव लाशों की भाँति गलीचे पर बिछे थे। मैगी गार्ड की छाती पर माथा टिकाये सो रही थी, मद्यपान ने जैसे उसका मुखौटा उतारकर दूर फेंक दिया था। कितनी अधेड़ और थकी लग रही थी मैगी! सोनिया, लिज, बेटी और ऐनी पियानो पर ही औंधी हो गयी थीं। गार्ड के सिर पर-टेढ़ा लगा क्रेप पेपर का लाल कंगूरेदार ताज, मैगी के सुनहले वालों पर चिड़िया के पंख जड़ी हरे क्रेप काग़ज की तिरछी टोपी, उनके खर्राटों के साथ-साथ हिलती देख पन्ना के पीछे खड़ी वाणी सेन जोर से हँसने लगी।'' आहा हा, वारी जाऊँ इन ललमुँहों की छटा पर! ऐ छोटी दी, इस ससुरे गार्ड बाबू की मूँछें असली हैं या नक़ली? खींचकर देखूँ तनिक?'' और वह सचमुच ही सोये गार्ड की मूँछों की ओर दो अँगुलियों की सनसी बनाये झुक ही रही थी कि धीमे से द्वार खोलकर, हाथ में बैग लटकाये, मुसकराती रोजी खड़ी हो गयी।
हड़बड़ाकर वाणी को पीछे धकेल, पन्ना दौड़कर रोज़ी से लिपट गयी।''यह क्या रोजी, तुमने तो लिखा था तुम क्रिसमस के बाद आओगी? किसमें आयी? ताँगे में-कहती क्या हो! एक तार तो कर दिया होता, घर ढूँढ़ने में कितनी आफ़त आयी होगी!''
''नहीं डार्लिग,''उस सौम्य सन्त चेहरे की एक-एक रेखा निर्विकार थी, ''पीली कोठी को सब जानते हैं।''
चौंककर पन्ना ने रोजी की ओर देखा, फिर सहमकर आँखें झुका लीं।
''वाणी, तुम ताँगे से सामान ऊपर मेरे कमरे में पहुँचा दो। रोजी मेरे साथ हो रहेगी।''
कई घेर घुमावदार सीढ़ियाँ पार कर रोज़ी पन्ना के कमरे में पहुँची। सीढ़ियों के दोनों ओर लगे आदमक़द शीशे, हाथी-दाँत के बने हैंगर, जिन पर कई निशाचरों के ओवरकोट अपने निर्जीव स्वामियों की अचल देह की भाँति ही झूल रहे थे, वास्तव में दर्शनीय थे। अपने कमरे में पहुँचकर पन्ना ने रोज़ी के दोनों हाथ पकड़कर बड़े लाड़ से उसे अपने रेशमी गुदगुदे बिछावन पर बिठा दिया और स्वयं कुरसी खींचकर उसके पास बैठ गयी।
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