लोगों की राय

नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

16660 पाठक हैं

हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''चिन्ता क्यों करती है पन्ना,'' बड़ी दी ने उसकी पीठ पर हाथ फेरकर कहा, ''मेरे पास उबटन के तीन-चार ऐसे यूनानी नुस्से धरे हैं कि अम्मा कहती थीं, कौए को भी पोत दो तो उजला-चिट्टा बगुला नज़र आएगा।'

''लाख रंग साँवला हो छोटी दी,'' क़ालीन पर हाथ-पैर मारती बच्ची को वाणी ने गोद में उठाकर गालों से लगा लिया, ''नाक देखती नहीं, कैसी खड्ग की-सी धार धरी है। होंठ! आहा, क्या मनोहारी गठन है। यह ललाट, काले, चिकने, घने केश और नौरत्ती बावन तोले की ये वनमृगी-सी आँखें! तभी तो मैंने नाम धरा है ''कृष्णकली।'' सहसा गोद में बच्ची को लेकर वह झूम-झूमकर गाने लगी-

कृष्णकली आमी तारेई बोली-
कालो तारे बोले गायेर लोक
मेघला दिने, देखे छिलेम माठे
कालो मेयेर काली हरीग चोख

वाणी के वंशी-से मीठे गले को किसी साज-संगत के बिना ही श्रोता को मोह लेने का वरदान प्राप्त था। स्वाभाविक मुरकियाँ, मीठे स्वर का सधा आरोह, जो कथा जादुई गति से अवरोह की सोपान पक्तियों में सुनने वाले को भी बरबस अपने साथ खींच ले जाता, उसके छमार साँवले चेहरे से भी मेल खाता था! कूर नियति ने हा उस पढ़ी-लिखी, सम्प्रान्त कुल की आकर्षक अध्यापिका को पीली कोठी में पटक दिया। पर जो उस कुण्ठाग्रस्त अध्यापिका को उसके जीवन ने नहीं दिया था, वह उसे पीली कोठी ने पल-भर में दे दिया। वैभव, एक-से-एक दामी साड़ियाँ, विलास की ऐसी-ऐसी अलभ्य सामग्रियाँ, जिनके विषय में उसने कभी सुना भी नहीं था। एक दासी उठते ही बादामरोगन की मालिश कर जाती, फिर दूसरी आकर हमाम के ऐसे-ऐसे बाथ सॉल्ट छिड़क जाती कि चमड़ी यदि कोई छीलकर भी तराश देता तब भी शायद उनकी मादक सुगन्धित मांसमज्जा में ही बसी रहती। कितनी बार उसे
कितने सुपात्र देख-देखकर नापसन्द कर गये थे, आज उसकी ऐसी स्थिति है कि वह कितने ही सुपात्रों को नाक-भौं चढ़ाकर नापसन्द कर देती है। अनाथा वाणी सेन के दरिद्र मामा किसी प्रकार का दहेज देने में असमर्थ थे। फिर वह असामान्य सुन्दरी भी नहीं थी। किसी प्रकार पढ़-लिखकर उसने बी.ए. की परीक्षा पास कर ली थी। इसी से जब मामा के विधुर मित्र रजनीकान्त मित्रा ने, उसे अपने गर्ल्स हाई स्कूल में अध्यापिका का पद प्रदान किया, तो उसे सहसा अपने सौभाग्य पर विश्वास ही नहीं हुआ था।
''कुमड़ो,'' (कद्दू) रजनी काका उसके मामा की पृथुल तोंद के कारण उन्हें इसी विचित्र नाम से पुकारते थे, एक दिन कहने लगे, ''तेरी भानजी के लिए जब तक कोई सुयोग पात्र नहीं जुटता, क्यों न इसे मेरे स्कूल में भेज दे? लड़की गुणी है, इतना अच्छा गाती है, हमारे यहाँ संगीत की कोई अध्यापिका है भी नहीं,'' मामा तो मारे खुशी के रो भी पड़े थे। केवल चतुर मामी को यह मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव जरा भी नहीं रुचा।

''नौकरी करनी है छोकरी को तो क्या एक उसी रँडुवे मित्तर का स्कूल रह गया है? एक तो अभागा स्वयं ही मैनेजर है, उस पर दिन-रात तो उसकी कीर्ति सुनने में आती रहती है।''
मामी के उस प्रस्ताव का अनुमोदन न करने का कारण और भी था। सुबह से लेकर शाम तक वाणी उनकी गृहस्थी के कोल्हू में बैलकी जुती रहती थी। इसी बीच मामा को दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे, मामी को उनके भाई साथ लिवा ले गये, और वाणी को रजनी काका ने स्नेहपूर्ण आग्रह से अपने पास रोक लिया।
''कुछ ही दिनों में लड़कियों के लिए एक बोर्डिंग हाउस की भी व्यवस्था करनी होगी। तुम नहीं रहोगी बेटी तो कौन उन्हें देखेगा?''
शायद उस स्नेहपूर्ण आत्मीय सम्बोधन ने ही वाणी को अटका लिया। पहले-पहल चतुर रजनीकान्त ने अपनी शरण में आयी उस अनाथा किशोरी के साथ अपना व्यवहार ऐसा उदासीन एवं तटस्थ रखा कि वाणी को स्वयं ही उनको अपनी छोटी-मोटी आवश्यकताओं से अवगत कराने के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता। कभी सीमेण्ट जुटाने कटनी चले गये हैं, जब मिलते भी तो ऐसी रूखी बातें करते कि वाणी का शरीर जल उठता। तब वह क्या जानती थी कि वह कुटिल व्यक्ति अपनी उदासीनता से ही उसका विश्वास जीतना चाहता है! यह ठीक था कि पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने, यहाँ तक कि उसकी संगीत-शिक्षा का भी उन्होंने समुचित प्रबन्ध कर दिया था। एक अन्धे म्यूजिक मास्टर उसे पक्के गाने की शिक्षा देने आते, सन्ध्या को नित्य रजनी काका के परम मित्र दुलाल बाबू उसे रवीन्द्र संगीत सिखा जाते, पर रजनी काका उसे जब मिलते, एक-न-एक बात से जता देते कि वे उस पर बहुत रुपया खर्च कर रहे हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book