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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


''गाना ठीक से सीख रही हो ना? यह मत समझना कि दुलाल मेरे मित्र हैं तो तुम्हें मुफ्त में गाना सिखा रहे हैं। दोनों को गाड़ी तनख्वाह दे रहा हूँ। चारु तुम्हारे पास सोती है ना?'' अपनी एक पुरानी वृद्धा दासी की नियुक्ति उन्होंने वाणी के आते ही कर दी थी।
''हां काका बाबू सोती है।'' कहकर वाणी चुपचाप अपने कमरे में लौट आयी थी। उतनी बड़ी कोठी में वाणी एक प्रकार से बन्दिनी का-सा जीवन व्यतीत करती थी। शहर से दूर 'मित्र निकुंज' एक प्रकार से जगंल ही में बसा था। अभी तक भी लोग उसके नये नाम की अवहेलना कर, उसे उसके पुराने नाम से ही अधिक पुकारते थे-''नील साहबेर कुठी' यह एक अँगरेज़ साहब की बड़े शौक़ से बनवायी गयी विराट् कोठी थी जिसने नील की खेती से कभी लाखों रुपये पैदा किया था। मित्रा ने उसे मिट्टी के मोल खरीद, उसकी उजाड़ भव्यता को एक बार फिर सँवार लिया था। साहब के ही विदेशी रुचि से बने अतिथि-भवन में अब उनकी दिवंगता पत्नी के नाम पर अमला गर्ल्स हाई स्कूल था। नील कोठी का जो कमरा वाणी को मिला था, वह निश्चय ही उस साहब की मेम साहिबा का रहा होगा। दीवारों पर तब भी, नाखून से चूने की एक-दो परतें उखाड़ने पर शत-पत्रांकित धूमिल गुलाबी 'वाल पेपर' निकल आता। एक बड़ा-सा अन्धा झाड़-फ़ानूस, टेढ़ा होकर नीचे तक झूल आया था। जहाज़-से पलँग पर थकी-हारी वाणी सोने जाती तो स्वयं ही अज्ञात भय से उसका शरीर काँप उठता। इतने बड़े पलँग में उसकी इकहरी देह जैसे डूबकर रह जाती। कुछ देर तक चारु अपने वर्षों पुराने दमे की धौंकनी चलाती रहती, और फिर बड़बड़ाने लगती, ''अजीब शौक़ है बाबू का, घर की घरनी जब तक रही, बेचारी का कभी मुँह भी नहीं देखा! काली थी तो उसका क्या दोष? मैं कहती हूँ जब देखने गये तो क्या आँखों पर पट्टी बँधी थी? आहा, कैसी लक्ष्मी बिटिया थी हमारी, एक रूप ही तो नहीं था। दहेज कितना लायी थी। किसकी बदौलत आज इस साहब की कोठी में राज कर रहे हैं, सब भूल गये हैं बाबू! अब मर गयी तो उसके नाम का स्कूल बनवाकर टेसुवै बहाते फिर रहे हैं! मैं कहती हूँ बाबा मेरी तो छुट्टी करो। जिसके साथ दहेज में आयी थी, जब वही नहीं रही तो मैं क्या करूँ यहाँ? नवद्वीप में भानजा है, वहीं जाकर निमाई के चरणों में दिन काट लूँगी। पर यह तो मारें भी और रोने भी न दें!''
कभी-कभी वाणी झुँझलाकर कह देती, ''ठीक है चारु, जाना है तो कल ही चली जाओ, मुझे क्यों सुनाती हो। काका बाबू से कहो ना।''
''आहा रे काका बाबू,'' चारु अचानक उठकर बैठ जाती, उसकी झुर्री पड़ी लटकनों को बड़े कमरे का अन्धकार और भी बीभत्स बना देता, जैसे कोई काली डाइन आकर बैठ गयी हो। ''मैं भी देखती हूँ कितने दिन भतीजी बनकर रहती हो, तुम-जैसी बीसियों भतीजियाँ इसी कमरे में शिकार हुई हैं।'' फिर उसके एकदम निकट
खिसककर वह अपनी फुसफुसाहट का चिप लालने लगती। ''भला चाहती हो तो बहाना बनाकर चुपचाप खिसक जाओ, समझी? फूलरेनू, धूजारिनी, अभया, कृष्णा, बेनू-, कितनी सौतों ने सताया मेरी मालकिन को। देखती नहीं दीवारों को? भला कुँआरी लड़की के कमरे मे ऐसी नंगी तस्वीरें लटकायी जाती हैं?''

सचमुच ही आदमक़द नग्न तसवीरों को देखकर वाणी सेन सिहर उठी थी। चाहे मेम ही ने क्यों न लटकायी हों, पर क्या सयाने काका बाबू को नहीं चाहिए था कि उसके आने के पूर्व उन्हें हटाकर कहीं और डाल देते?

क्या पता चारु ठीक ही कह रही हो। पर वह जाये भी तो कहाँ जाये? हृदयहीना मामी को वह जानती थी। उसके भाई की व्याघ्रदृटि ने उसे कुछ ही पलों में लीलने की जो निर्लज्ज चेष्टा की थी, उसे शायद मामी ने भी देख लिया था। इसी से उन्होंने भानजी को साथ ले चलने का कोई आग्रह नहीं किया। न पिता के वंश में कोई बचा था, न माँ के। रात-रात जगकर वह भविष्य की योजनाएँ बनाती पर स्कूल पहुँचते ही काका बाबू का निर्विकार चेहरा देखकर उसके चित्त का कलुष उसे स्वयं लखित कर देता। ऐसे देवतुल्य व्यक्ति के लिए वह कैसी घिनौनी बातें सोचने लगी थी? ऐसे ही यदि होते तो क्या इन सात महीनों में एक बार भी अपने कामी स्वभाव का परिचय नहीं देते? हो सकता है वे सब बातें चारु ने केवल इसीलिए उसे सुनायी हों कि वह स्वयं ही भागकर उसका रास्ता साफ़ कर दे।
''तुम जब जाओगी तब ही बाबू मुझे छुट्टी देंगे,'' वह प्रायः ही कहती रहती थी। पर चतुर गिद्ध क्या एकदम ही शिकार पर झपटता है? उसी छली पक्षी की भाँति, निर्मल आकाश में गोल-गोल चक्कर काटते जब रजनीकान्त अपने शिकार पर झपटे, तो वह सँभल भी नहीं पायी।

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