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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


तीन


एक बार जी में आया, चिट्ठी फाड़कर फेंक दे-क्या बड़ी दी ही रह गयी हैं शरण देने वाली? जहाँ नहीं चाहती थी वहीं नियति उसे बलि के बकरे-सी घसीट रही थी। उसके भविष्य में अब बचा ही क्या था! पर इन नन्हे प्राणों के स्पन्दन की क्या उसे कुछ भी चिन्ता नहीं है? सुदर्शन पठान पिता और पहाड़ी सुन्दरी माँ की पुत्री निश्चय ही एक दिन अपूर्व सुन्दरी होगी और नारी-सौन्दर्य की विलक्षण पारखी बड़ी दी उसे फिर क्या जाने देंगी?
और क्या पता रूठी बड़ी दी उसे लेने ही न आयें? पर पन्ना की चिन्ता व्यर्थ थी। वह पहुँची तो बड़ी दी अपने दलबल के साथ उसे स्टेशन पर लेने उपस्थित थीं। परिचित सेही चेहरों को देखते ही पन्ना अपनी सारी चिन्ता, शारीरिक दुर्बलता और मानसिक व्यथा भूल गयी। यही तो उसका परिवार था गोल, चिकने चेहरे वाली नेपाली लड़की। चेहरे से भी बड़े जड़ेवाली वाणी सेन, जिसके होंठों की हँसी धीरे-धीरे बिजली-सी चमकती आँखों तक फैल जाती और तब उस उद्भासित बड़ी आँखों की दिव्य दृष्टि मैत्री के दो हाथ फैलाकर देखने वाले को बाँधकर सदा के लिए बन्दी बना लेती; चीनी सुन्दरी मी वांग, जिसकी तिरछी आँखें सामान्य-से स्मित में बन्द होकर रह जातीं; तुर्की गुड़िया निलोफर जिसे माणिक ने कोहनूर हीरे के दाम चुकाकर खरीदा था, और उन सबको अनुशासन की एक सामान्य-सी खाँसी का चाबुक मारकर ही
सधी केजिा टुकड़ी-सी साधने वाली स्वयं बड़ी तो! बड़ी दी के चेहरे को देखकर वह क्या कभी आज तक- उन पतले क्रूर होंठों की दबी हँसी का रहस्य जान पायी है? उस स्मित में व्यंग्य था या करुणा, या वे मन-ही-मन प्रसत्र होकर कह रही थीं, ''क्यों री अकड़बाज छोकरा, आखिर आयी न मेरी शरण में!''

या उस स्मित की सील मोहर लगाकर अन्तव्यथा के वाष्प का ढकना बरबस बन्द कर रही थी बड़ी दी।
देखते-ही-देखते पन्ना की गोदी की अमूल्य गठरी हाथों-ही-हाथों में उछलने लगी, अकेली माणिक ने ही उसे गोदी में नहीं लिया।
''देखो तो बड़ी दी, कैसी बड़ी-बड़ी आँखें हैं तुम्हारी, भतीजी की,'' वाणी सेन गोदी त्हे बण्डल को लेकर उसकी ओर बढ़ आयी, तो चट से माणिक ने आँखें बन्द कर लीं।'' मर कलमुँही, ऐसे भला खाली हाथ बिटिया का मुँह देखूँगी?''
घर पहुँचते ही बड़ी दी का क्रोध, स्वयं ही पहाड़ी कुहरे-सा विलीन हो गया। जो चेहरा कुछ क्षण पूर्व पन्ना के दुस्साहसी पलायन की स्मृति में फूलकर कुप्पा बन गया था, उसी पर उनकी चिरपरिचित स्नेही मुसकान थिरकते देख, पन्ना के सिर का बोझ स्वयं ही उतर गया। बड़ी दी ने क्षमा कर दिया है उसे, एक अनोखी शान्ति से परिपूर्ण हो उसका चित्त प्रफुल्लित हो उठा।

पीली कोठी का राजसी प्रांगण, गोल कमरे में अगरु-चन्दन की मदमस्त सुगन्ध, हवा में झूलते एक-दूसरे से मृदु ठनक में ठनकते झाड़-फ़ानूस के झुमके, दासियों की चहल-पहल और गुदगुदे क़ालीन पर बिछी चाँदनी पर लगा बड़ी दी का नित्य का वही दिल्ली दरबार। एक अशर्फ़ी से माणिक ने भतीजी का मुँह देखा तो चेहरा फक हो गया।'' अरी पन्ना, तेरी यह बिटिया इतनी साँवली कैसे हो गयी री? तेरा ऐसा फिरंगियों का-सा रंग और विद्युतरंजन भी गोरा-चिट्टा-ये मुई कहीं अपनी कलूटी हीरा मौसी पर तो नहीं पड़ी!'' एक उदासीन दृष्टि का ही उत्तर देकर पन्ना चुप हो गयी।

अकारण ही उसके गले में किसी का स्मृतिमाहर अटककर रह गया। कैसे कहे वह बड़ी दी से, जो मेरी बेटी थी उसे तुमने आज देखा होता, तो ऐसे नहीं चौंकती। गोरा रंग, नीली आँखें और सुनहले बाल, विदेशी नाना का व्यक्तित्व ही उस 'क्षणिक अतिथि' में साकार हो उठा था।
''तुम्हें भी बड़ी दी, खूब मीन-मेख निकालना आता है,'' वाणी सेन ने चट से बच्ची को अपनी गोद में लिया। ''अब देखो तो री तुम सब, भला कहीं ऐसी काली हे, अब सालिग्राम को तुम चन्दन की बटी पर टिका दो तो और भी काला दिखेगा। बड़ी दी और छोटी दी ठहरीं निखालिस मेम लोग। इसी से उन सबकी गोदी में बेचारी अपना भी रंग खो बैठी-अब हम सबकी गोदी में देखो, आहा, क्या लग रही है-एकदम कृष्णकली।''
पन्ना को हँसी आ गयी। माणिक मुँह में पान दोस्ते का पीक गुलगुला रही थी,
वैसे ही पीक को गालों में इधर-उधर भरकर कहने लगी, ''बातें करना तो कोई वाणी से सीखे, तभी तो बैरिस्टर राय इस पर बुढ़ौती न्यौछावर कर देते हैं।''
वाणी दोनों लम्बे-चौड़े हाथों को नर्तकी के नमस्कार की-सी मुद्रा में बाँधकर झुककर माणिक के सामने खड़ी हो गयी-गोदी की बच्ची को उसने माणिक के पैरों के पास रख दिया था। ''तुम कहती हो एक बैरिस्टर राय? बड़ी दी, तुम्हारे आशीर्वाद से आठ-आठ ऐसे बुढ़ऊ बगल में दबाये फिर रही हूँ कि जब चाहे जिसके तीन-चार हजार उगलवा दूँ। इसे भी ऐसा आशीर्वाद दो बड़ी दी कि हमारी-तुम्हारी तरह ही हमारी कृष्णकली भी राजरानी बन, शतसहस्र हृदयों पर एकच्छत्र राज्य करे।'' माणिक ने कनखियों से पन्ना को देखा। वह तो वहाँ होकर भी जैसे नहीं थी। शायद उसकी पुत्री को साँवली कह दिया था, इसी से कुछ अनमनी-सी हो गयी थी बेचारी।

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